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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा १५भिन्नं निश्चयनयेन भिन्नं ज्ञानमयं केवलज्ञानेन निर्वृत्तं परमात्मानं योऽसौ जानाति परमसमाहिपरिट्टियउ पंडिउ सो जि हवेइ वीतरागनिर्विकल्पसहजानन्दैकशुद्धात्मानुभूतिलक्षणपरमसमाधिस्थितः सन् पण्डितोऽन्तरात्मा विवेकी स एव भवति । “कः पण्डितो विवेकी" इति वचनात्, इति अन्तरात्मा हेयरूपो, योऽसौ परमात्मा भणितः स एव साक्षादुपादेय इति भावार्थः ॥१४॥ __ अथ समस्तपरद्रव्यं मुक्त्वा केवलज्ञानमयकर्मरहितशुद्धात्मा येन लब्धः स परमात्मा भवतीति कथयति अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म-विमुक्के जेण। मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो पर मुणहि मणेण ।। १५ ॥ आत्मा लब्धो ज्ञानमयः कर्मविमुक्तेन येन । मुक्त्वा सकलमपि द्रव्यं परं तं परं मन्यस्व मनसा ॥ १५ ॥ अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्मविमुक्के जेण आत्मा लब्धः प्राप्तः । किविशिष्टः । ज्ञानमयः केवलज्ञानेन निवृत्तः । कथंभूतेन सता । ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभावकर्मरहितेन येन । किं कृत्वात्मा लब्धः । मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो पर मुणहि मणेण । मुक्त्वा परित्यज्य । किम् । परं द्रव्यं देहरागादिकम् । सकलं कतिसंख्योपेतं समस्तमपि । तमित्थंभूतमात्मानं परं परमात्मानमिति मन्यस्व जानीहि हे प्रभाकरभट्ट । केन कृत्वा । मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयस्वरूपादिसमस्तविभावपरिणामरहितेन मनसेति । अत्रोक्तलक्षणपरमात्मा उपाअनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयसे अर्थात् इस जीवके परवस्तुका संबंध अनादिकालका मिथ्यारूप होनेसे व्यवहारनयकर देहमयी है, तो भी निश्चयनयकर सर्वथा देहादिकसे भिन्न है, और केवलज्ञानमयी है, ऐसा निज शुद्धात्माको वीतरागनिर्विकल्प सहजानंद शुद्धात्माकी अनुभूतिरूप परमसमाधिमें स्थित होता हुआ जानता है, वही विवेकी अंतरात्मा कहलाता है । यह परमात्मा ही सर्वथा आराधने योग्य है, ऐसा जानना ॥१४॥ ___ आगे सब परद्रव्योंको छोडकर कर्मरहित होकर जिसने अपना स्वरूप केवलज्ञानमय पा लिया है, वही परमात्मा है, ऐसा कहते हैं-येन] जिसने [कर्मविमुक्तेन] ज्ञानावरणादि कर्मोंका नाश करके [सकलमपि परं द्रव्यं] और सब देहादिक परद्रव्योंको [मुक्त्वा ] छोड करके [ज्ञानमयः] केवलज्ञानमयी [आत्मा] आत्मा [लब्धः] पाया है, [तं] उसको [मनसा] शुद्ध मनसे [परं] परमात्मा [मन्यस्व] जानो ॥ भावार्थ-जिसने देहादिक समस्त परद्रव्यको छोडकर ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादिक भावकर्म, शरीरादि नोकर्म इन तीनोंसे रहित केवलज्ञानमयी अपने आत्माका लाभ कर लिया है, ऐसे आत्माको हे प्रभाकरभट्ट, तू माया, मिथ्या, निदानरूप शल्य वगैरह समस्त विभाव (विकार) परिणामोंसे रहित निर्मल चित्तसे परमात्मा जान, तथा केवलज्ञानादि गुणोंवाला परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है और ज्ञानावरणादिरूप सब परवस्तु त्यागने योग्य है, ऐसा समझना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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