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________________ -दोहा १४ ] परमात्मप्रकाशः __ मूढो विचक्षणो ब्रह्मा परः आत्मा त्रिविधो भवति । देहमेव आत्मानं यो मनुते स जनो मूढो भवति ॥ १३ ॥ मूद वियक्खणु बंभु परु अप्पा तिविह हवेइ मूढो मिथ्यात्वरागादिपरिणतो बहिरात्मा, विचक्षणो वीतरागनिर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानपरिणतोऽन्तरात्मा, ब्रह्मा शुद्धबुद्धकस्वभावः परमात्मा । शुद्धबुद्धस्वभावलक्षणं कथ्यते शुद्धो रागादिरहितो बुद्धोऽनन्तज्ञानादिचतुष्टयसहित इति शुद्धबुद्धस्वभावलक्षणं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । स च कथंभूतः ब्रह्मा । परमो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितः। एवमात्मा त्रिविधो भवति । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूदु हवेइ वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसंजातसदानन्दैकसुखामृतस्वभावमलभमानः सन् देहमेवात्मानं यो मनुते जानाति स जनो लोको मूढात्मा भवति इति । अत्र बहिरात्मा हेयस्तदपेक्षया यद्यप्यन्तरात्मोपादेयस्तथापि सर्वप्रकारोपादेयभूतपरमात्मापेक्षया स हेय इति तात्पर्यार्थः ॥ १३॥ अथ परमसमाधिस्थितः सन् देहविभिन्नं ज्ञानमयं परमात्मानं योऽसौ जानाति सोऽन्तरात्मा भवतीति निरूपयति देह-विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ । परम-समाहि-परिद्वियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥ १४ ॥ देहविभिन्नं ज्ञानमयं यः परमात्मानं पश्यति । परमसमाधिपरिस्थितः पण्डितः स एव भवति ॥ १४ ॥ देहविभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन देहादकरता हुआ अंतरात्मा [ब्रह्मा परः] और शुद्ध बुद्ध स्वभाव परमात्मा अर्थात् रागादि रहित अनंत ज्ञानादि सहित, भावद्रव्य कर्म नोकर्म रहित आत्मा इस प्रकार [आत्मा] आत्मा [त्रिविधो भवति] तीन तरहका है, अर्थात् बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्मा, ये तीन भेद हैं । इनमेंसे [यः] जो [देहमेव] देहको ही [आत्मानं] आत्मा [मनुते] मानता है, [स जनः] वह प्राणी [मूढः] बहिरात्मा [भवति] है, अर्थात् बहिर्मुख मिथ्यादृष्टि है ।। भावार्थ-जो देहको आत्मा समझता है, वह वीतराग निर्विकल्प समाधिसे उत्पन्न हुये परमानंद सुखामृतको नहीं पाता हुआ. मूर्ख है, अज्ञानी है । इन तीन प्रकारके आत्माओंमेंसे बहिरात्मा तो त्याज्य ही है-आदर योग्य नहीं है । इसकी अपेक्षा यद्यपि अंतरात्मा अर्थात् सम्यग्दृष्टि वह उपादेय है, तो भी सब तरहसे उपादेय (ग्रहण करने योग्य) जो परमात्मा उसकी अपेक्षा वह अंतरात्मा हेय ही है, शुद्ध परमात्मा ही ध्यान करने योग्य है, ऐसा जानना ॥१३॥ ___ आगे परमसमाधिमें स्थित, देहसे भिन्न ज्ञानमयी (उपयोगमयी) आत्माको जो जानता है, वह अन्तरात्मा है, ऐसा कहते हैं-यः] जो पुरुष [परमात्मानं] परमात्माको [देहविभिन्नं] शरीरसे जुदा [ज्ञानमयं] केवलज्ञानकर पूर्ण [पश्यति] जानता है, [स एव] वही [परमसमाधिपरिस्थितः] परमसमाधिमें तिष्ठता हुआ [पंडितः] अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी [भवति] है ।। भावार्थ-यद्यपि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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