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________________ परमात्मप्रकाशः - दोहा १० ] समाधिसमुत्पन्नवीतरागपरमानन्दसुखामृतं किमपि न प्राप्तं किंतु तद्विपरीतमाकुलत्वोत्पादकं विविधशारीरमानसरूपं चतुर्गतिभ्रमणसंभवं दुःखमेव प्राप्तमिति । अत्र यस्य वीतरागपरमानन्दसुखस्यालाभे भ्रमितो जीवस्तदेवोपादेयमिति भावार्थः ।। ९ ।। अथ यस्यैव परमात्मस्वभावस्यालाभेऽनादिकाले भ्रमितो जीवस्तमेव पृच्छति— - गइ दुक्खहँ तत्ताहँ जो परमप्पर कोइ । उ-इ-दुक्ख-विणासयरु कहहु पसाएँ सो वि ॥ १० ॥ चतुर्गतिदुःखैः तप्तानां यः परमात्मा कश्चित् । : चतुर्गतिदुःखविनाशकरः कथय प्रसादेन तमपि ॥ १० ॥ चउगइदुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पर कोइ चतुर्गतिदुःखतप्तानां जीवानां यः कश्चिच्चिदानन्दैकस्वभावः परमात्मा । पुनरपि कथंभूतः । चउगइदुक्खविणासयरु आहारभयमैथुनपरिग्रहसंज्ञारूपादिसमस्तविभावरहितानां वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन परमात्मोत्थसहजानन्दैकसुखामृतसंतुष्टानां चतुर्गतिदुःखविनाशकः कहहु पसाएँ सो वि हे भगवन् तमेव परमात्मानं महाप्रसादेन कथयेति । अत्र योऽसौ परमसमाधिरतानां चतुर्गतिदुःखविनाशकः स एव सर्वप्रकारेणोपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥ १० ॥ एवं त्रिविधात्मप्रतिपादकप्रथममहाधिकारमध्ये प्रभाकर भट्टविज्ञप्तिकथनमुख्यत्वेन दोहकसूत्रत्रयं गतम् । अथ प्रभाकरभट्टविज्ञापनानन्तरं श्री योगीन्द्रदेवास्त्रिविधात्मानं कथयन्तिभयानक वनमें भटकता है । सारांश यह हुआ, कि वीतराग परमानंद सुखके न मिलनेसे यह जीव संसाररूपी वनमें भटक रहा है, इसलिये वीतराग परमानंदसुख ही आदर करने योग्य है ||९|| आगे जिस परमात्मस्वभावके अलाभमें यह जीव अनादि कालसे भटक रहा था, उसी परमात्मस्वभावका व्याख्यान प्रभाकरभट्ट सुनना चाहता है - [ चतुर्गतिदुःखैः ] देवगति, मनुष्यगति, नरकगति, तिर्यंचगतियोंके दुःखोंसे [ तप्तानां ] तप्तायमान ( दुःखी ) संसारी जीवोंके [चतुर्गतिदुःखविनाशकरः ] चार गतियोंके दुःखोंका विनाश करनेवाले [ यः कश्चित् ] जो कोई [ परमात्मा ] चिदानंद परमात्मा है, [तमपि ] उसको [ प्रसादेन ] कृपा करके [ कथय ] हे श्रीगुरु, तुम कहो || भावार्थ - वह चिदानन्द शुद्ध स्वभाव परमात्मा, आहार, भय, मैथुन, परिग्रहके भेदरूप संज्ञाओंको आदि लेकर समस्त विभावोंसे रहित, तथा वीतराग निर्विकल्पसमाधिके बलसे निज स्वभावकर उत्पन्न हुए परमानन्द सुखामृतकर सन्तुष्ट हुआ है हृदय जिनका, ऐसे निकट संसारीजीवोंके चतुर्गतिका भ्रमण दूर करनेवाला है, जन्म जरा मरणरूप दुःखका नाशक है, तथा वह परमात्मा निज स्वरूप परमसमाधिमें लीन महामुनियोंको निर्वाणका देनेवाला है, वही सब तरह ध्यान करने योग्य है, सो ऐसे परमात्माका स्वरूप तुम्हारे प्रसादसे मैं सुनना चाहता हूँ । इसलिये कृपाकर आप कहो | इस प्रकार प्रभाकरभट्टने श्रीयोगींद्रदेवसे विनती की ॥१०॥ इस कथन की मुख्यतासे तीन दोहे हुये । Jain Education International १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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