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________________ [ दोहा ९ कुलखलक्षणपारमार्थिकसुखविपरीतनानामानसादिदुः खरूपवडवानलशिखासंदीपिताभ्यन्तरे वीतरागनिर्विकल्पसमाधिविपरीत संकल्पविकल्पजालरूपेण कल्लोलमालासमूहेन विराजिते संसारसागरे वसतां तिष्ठतां हे स्वामिन्ननन्तकालो गतः । कस्मात् । एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यत्वदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनिर्व्याध्यायुष्कवरबुद्धिसद्धर्मश्रवणग्रहणधारणश्रद्धानसंयमविषयसुख व्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्तनेषु परंपरया दुर्लभेषु । कथंभूतेषु । लब्धेष्वपि तपोभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनाधर्मेषु शुद्धात्मभावनालक्षणस्य वीतरागनिर्विकल्पसमाधिदुर्लभत्वात् । तदपि कथम् । वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबोधिप्रतिपक्षभूतानां मिध्यात्वविषयकषायादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्न भवान्तरप्रापणं समाधिरिति बोधिसमाधिलक्षणं यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्यम् । तथा चोक्तम् — “ इत्यतिदुर्लभरूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् । संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् ||" परं किंतु बोधिसमाध्यभावे पूर्वोक्तसंसारे भ्रमतापि मया शुद्धात्मनिश्चय सुखसे विपरीत, अनेक प्रकार आधि व्याधि दुःखरूपी वडवानलकी शिखाकर प्रज्वलित, वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर रहित, महान संकल्प विकल्पोंके जालरूपी कल्लोलोंकी मालाओंकर विराजमान, ऐसे संसाररूपी समुद्रमें रहते हुए मुझे हे स्वामी ! अनंतकाल बीत गया । इस संसार में एकेन्द्रियसे दोइंद्रिय, तेइंद्रिय, चौइंद्रिय स्वरूप विकलत्रय पर्याय पाना दुर्लभ (कठिन) है, विकलत्रयसे पंचेंद्रिय, सैनी, छह पर्याप्तियोंकी संपूर्णता होना दुर्लभ है, उसमें भी मनुष्य होना अत्यन्त दुर्लभ, उसमें आर्यक्षेत्र दुर्लभ, उसमेंसे उत्तम कुल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ण पाना कठिन है, उसमें भी सुन्दर रूप, समस्त पाँचों इन्द्रियोंकी प्रवीणता, दीर्घ आयु, बल, नीरोग शरीर, जैनधर्म इनका उत्तरोत्तर मिलना कठिन है । कभी इतनी वस्तुओंकी भी प्राप्ति हो जावे, तो भी श्रेष्ठ बुद्धि, श्रेष्ठ धर्म-श्रवण, धर्मका ग्रहण, धारण, श्रद्धान, संयम, विषय- सुखोंसे निवृत्ति, क्रोधादि कषायोंका अभाव होना अत्यंत दुर्लभ है और इन सबोंसे उत्कृष्ट शुद्धात्मभावनारूप वीतरागनिर्विकल्प समाधिका होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि उस समाधिके शत्रु जो मिथ्यात्व, विषय, कषाय आदि विभाव परिणाम है, उनकी प्रबलता है । इसीलिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति नहीं होती और इनका पाना ही बोधि है, उस बोधिका जो निर्विषयपनेसे धारण वही समाधि है । इस तरह बोधि समाधिका लक्षण सब जगह जानना चाहिये । इस बोधि समाधिका मुझमें अभाव है, इसीलिये संसारसमुद्रमें भटकते हुए मैंने वीतराग परमानंद सुख नहीं पाया, किंतु उस सुखसे विपरीत (उल्टा) आकुलताके उत्पन्न करनेवाला नाना प्रकारका शरीरका तथा मनका दुःख ही चारों गतियोंमें भ्रमण करते हुए पाया है । इस संसारसागरमें भ्रमण करते मनुष्य- देह आदिका पाना बहुत दुर्लभ है, परंतु उसको पाकर कभी प्रमादी (आलसी) नहीं होना चाहिये । जो प्रमादी हो जाते हैं, वे संसाररूपी वनमें अनंतकाल भटकते हैं । ऐसा ही दूसरे ग्रंथोंमें भी कहा है—‘“इत्यतिदुर्लभरूपा’ इत्यादि । इसका अभिप्राय ऐसा है कि यह महान् दुर्लभ जो जैनशास्त्रका ज्ञान है, उसको पाकर जो जीव प्रमादी हो जाता है, वह रंक पुरुष बहुत कालतक संसाररूपी १६ Jain Education International योगीन्दुदेवविरचितः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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