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________________ १८ योगीन्दुदेवविरचितः [ दोहा ११ ७ पुणु पुणु पणविवि पंच-गुरु भावे चित्ति धरेवि । भट्टपहायर णिस्रुणि तुहुँ अप्पा तिविहु कहेवि (विँ ? ) ॥ ११ ॥ पुनः पुनः प्रणम्य पञ्चगुरून् भावेन चित्ते धृत्वा । भट्टप्रभाकर निशृणु त्वम् आत्मानं त्रिविधं कथयामि ॥ ११ ॥ पुणु पुणु पणविवि पंचगुरु भावें चित्ति धरेवि पुनः पुनः प्रणम्य पञ्चगुख्नहम् । किं कृत्वा । भावेन भक्तिपरिणामेन मनसि धृत्वा पश्चात् भट्टपहायर णिस्रुणि तुहुँ अप्पा तिवि कवि हे प्रभाकरभट्ट ! निश्चयेन शृणु त्वं त्रिविधमात्मानं कथयाम्यहमिति । बहिरा - त्मान्तरात्मपरमात्मभेदेन त्रिविधात्मा भवति । अयं त्रिविधात्मा यथा त्वया पृष्टो हे प्रभाकरभट्ट तथा भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियाः परमात्मभावनोत्थवीतरागपरमानन्दसुधारसपिपासिता वीतरागनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतविपरीतनारकादिदुःखभयभीता भव्यवरपुण्डरीका भरत-सगर-राम-पाण्डव-श्रेणिकादयोऽपि वीतरागसर्वज्ञतीर्थकरपरमदेवानां समवसरणे सपरि आगे प्रभाकरभट्टकी विनती सुनकर श्रीयोगींद्रदेव तीन प्रकारके आत्माका स्वरूप कहते हैं[पुन: पुन: ] बारबार [ पञ्चगुरून् ] पंचपरमेष्ठियोंको [ प्रणम्य ] नमस्कारकर और [ भावेन ] निर्मल भावोंकर [चित्ते ] मनमें [ धृत्वा ] धारण करके ['अहं' ] मैं [ विविधं ] तीन प्रकारके [ आत्मानं ] आत्माको [ कथयामि] कहता हूँ, सो [ हे प्रभाकरभट्ट ] हे प्रभाकरभट्ट, [त्वं ] तू [निशृणु ] निश्चयसे सुन । भावार्थ - बहिरात्मा, अंतरात्मा, परमात्माके भेदकर आत्मा तीन तरहका है, सो हे प्रभाकरभट्ट ! जैसे तूने मुझसे पूछा है, उसी तरहसे भव्योंमें महाश्रेष्ठ भरतचक्रवर्ती, सगरचक्रवर्ती, रामचंद्र, बलभद्र, पांडव तथा श्रेणिक वगैर: बडे बडे राजा, जिनके भक्ति- भारकर नम्रीभूत मस्तक हो गये हैं, महा विनयवाले परिवारसहित समोसरणमें आकर, वीतराग सर्वज्ञ परमदेवसे सर्व आगमका प्रश्नकर, उसके बाद सब तरहसे ध्यान करने योग्य शुद्धात्माका ही स्वरूप पूछते थे । उसके उत्तरमें भगवानने यही कहा, कि आत्मज्ञानके समान दूसरा कोई सार नहीं है । भरतादि बडे बडे श्रोताओंमेंसे भरतचक्रवर्तीने श्रीऋषभदेव भगवानसे पूछा, सगरचक्रवर्तीने श्री अजितनाथसे, रामचंद्र बलभद्रने देशभूषण कुलभूषण केवलीसे तथा सकलभूषण केवलीसे, पांडवोंने श्रीनेमिनाथभगवानसे और राजा श्रेणिकने श्रीमहावीरस्वामीसे पूछा । कैसे हैं ये श्रोता ? जिनको निश्चयरत्नत्रय और व्यवहाररत्नत्रयकी भावना प्रिय है, परमात्माकी भावनासे उत्पन्न वीतराग परमानंदरूप अमृतरसके प्यासे हैं, और वीतराग निर्विकल्पसमाधिकर उत्पन्न हुआ जो सुखरूपी अमृत उससे विपरीत जो नरकादि चारों गतियोंके दुःख, उनसे भयभीत हैं । जिस तरह इन भव्य जीवोंने भगवंतसे पूछा, और भगवंतने तीन प्रकार आत्माका स्वरूप कहा, वैसे ही मैं जिनवाणीके अनुसार तुझे कहता हूँ । सारांश यह हुआ, कि तीन प्रकार आत्माके स्वरूपोंसे शुद्धात्म स्वरूप जो निज परमात्मा वही ग्रहण करने योग्य हैं । जो मोक्षका मूलकारण रत्नत्रय कहा है, वह मैंने निश्चयव्यवहार दोनों तरहसे कहा है, उसमें अपने स्वरूपका श्रद्धान, स्वरूपका ज्ञान, और स्वरूपका ही आचरण यह तो निश्चयरत्नत्रय है, इसीका दूसरा नाम अभेद भी है, और देव गुरु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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