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प्रस्तावनाका हिंदी सार
१२९ ठहरती है । अब हम देखेंगे कि उनकी रचनाओंसे उनके समयके सम्बन्धमें हम क्या जान सकते हैं ? परमात्मप्रकाशकी टीकामें ब्रह्मदेवने शिवार्यकी आराधनासे, कुन्दकुन्द (ई. की प्रथम श०) के भावपाहुड, मोक्खपाहुड, पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसारसे, उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रसे, समन्तभद्र (दूसरी शताब्दी) के रत्नकरण्डसे, पूज्यपाद (५वीं शताब्दी के लगभग) के संस्कृत सिद्धभक्ति और इष्टोपदेशसे, कुमारकी कत्तिगेयाणुप्पेक्खासे, अमोघवर्ष (ई० ८१५ से ८७७ के लगभग) की प्रश्नोत्तररत्नमालिकासे, गुणभद्रके (जिन्होंने २३ जून ८९७ में महापुराण समाप्त किया) आत्मानुशासनसे, संभवतः नेमिचन्द्र (१० वीं श०) के गोम्मटसार जीवकाण्ड और द्रव्यसंग्रहसे, अमृतचन्द्र (लगभग १० वीं श० की समाप्ति) के पुरुषार्थसिद्धयुपायसे, अमितगति (लगभग १० वीं श० का प्रारंभ) के योगसारसे, सोमदेव (९५९ ई.) के यशस्तिलकचम्पूसे, रामसिंह (हेमचन्द्रके पूर्व) के दोहापाहुडसे, रामसेन (आशाधर-१३ वीं श० के पूर्वार्द्धसे पहिले) के तत्त्वानुशासनसे और पद्मनन्दि (पद्मप्रभ-१२ वीं श० के अन्तके पहिले) की पञ्चविंशतिकासे पद्य उद्धृत किये हैं। उद्धरणोंकी इस छानबीनसे हम निश्चित तौरपर कह सकते हैं कि ब्रह्मदेव सोमदेवसे (१० वीं श० का मध्य) बादमें हुए हैं । द्रव्यसंग्रहवृत्तिकी आरम्भिक उत्थानिकामें ब्रह्मदेव लिखते हैं कि पहले नेमिचन्द्रने लघुद्रव्यसंग्रहकी रचना की थी, जिसमें केवल २६ गाथाएँ थीं । बादमें मालवदेशकी धारानगरीके राजा भोजके आधीन मण्डलेश्वर श्रीपालके कोषाध्यक्ष, आश्रमपुर निवासी सोमके लिये इसे बढाया गया । यतः सामायिक प्रमाणोंसे इस बातकी पुष्टि नहीं होती, अतः हम न तो नेमिचन्द्रको धाराके राजा भोजका समकालीन ही मान सकते हैं, और न लघुद्रव्यसंग्रहका बृहद्र्व्यसंग्रहके रूपमें परिवर्तन ही स्वीकार किया जा सकता है । किन्तु एक बात सत्य है कि ब्रह्मदेव धाराके राजा भोजसे, जिसे वे कलिकाल चक्रवर्ती बतलाते हैं, बहुत बादमें हुए हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं है कि ब्रह्मदेवके भोज मालवाके परमार और संस्कृत विद्याके आश्रयदाता प्रसिद्ध भोज ही हैं । भोजदेवका समय ई० १०१८-१०६० है । ब्रह्मदेवका यह उल्लेख बतलाता है कि वे ११वीं शताब्दीसे भी बहुत बादमें हुए हैं।
ऊपर यह बतलाया गया है कि जयसेनकी टीकाओंका ब्रह्मदेवपर बहुत प्रभाव है । जयसेन ईसाकी बारहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्धके लगभग हुए हैं । अतः ब्रह्मदेव बारहवीं शताब्दीसे बादके हैं । इन आभ्यन्तर और बाहिरी प्रमाणोंके आधारपर ब्रह्मदेव, सोमदेव (९५९ ई०), धाराके राजा भोज (ई. १०१८-६०), और जयसेन (१२वीं शताब्दीके लगभग) से बादमें हुए हैं, अतः ब्रह्मदेवको १३वीं शताब्दीका विद्वान कहा जा सकता है।
मलधारि बालचन्द्रकी कन्नडटीका मलधारि बालचन्द्र और उनकी कन्नडटीका-परमात्मप्रकाशकी 'प' प्रतिमें एक कन्नडटीका पाई जाती है, उसके प्रारम्भिक उपोद्घातसे यह स्पष्ट है कि इस टीकाका मुख्य आधार ब्रह्मदेवकी वृत्ति है । तथा इस बातके पक्षमें भी काफी प्रमाण है कि उसके कर्ताका नाम बालचन्द्र है । संभवतः अपने समकालीन अन्य बालचन्द्रोंसे अपनेको जुदा करनेके लिए उन्होंने अपने नामके साथ, 'कुक्कुटासन मलधारि' उपाधि लगाई है ।
ब्रह्मदेवकी टीकासे तुलना-बालचन्द्र लिखते हैं कि ब्रह्मदेवकी टीकामें जो विषय स्पष्ट नहीं हो सके हैं, उन्हें प्रकाशमें लानेके लिये उन्होंने यह टीका रची है । यह स्पष्ट उक्ति बतलाती है कि उन्होंने ब्रह्मदेवका अनुसरण किया है । किन्तु ब्रह्मदेवके मूलकी अपेक्षा बालचन्द्रके मूलमें ६ दोहे अधिक हैं । कुछ भेदोंको छोडकर, जो अन्य कन्नड प्रतियों में भी पाये जाते हैं, दोहोंकी अपभ्रंशभाषाके सम्बन्धमें दोनों एकमत हैं । किन्तु बालचन्द्रने ब्रह्मदेवके अतिरिक्त वर्णनोंको संक्षिप्त कर दिया है । दोहोंके प्रत्येक शब्दकी व्याख्या करना ही बालचन्द्रका मुख्य लक्ष्य मालूम होता है, उन्होंने ब्रह्मदेवकी तरह भावार्थ बहुत ही कम दिये हैं । ब्रह्मदेवके
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