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________________ १३० परमात्मप्रकाश उद्धरणोंको भी उन्होंने छोड दिया है, किन्तु कुछ स्थलोंपर कन्नड-पद्य उद्धृत किये हैं । ग्रन्थके अन्तमें ब्रह्मदेवके अतिरिक्त वर्णनोंकी उपेक्षा करके उन्होंने केवल शब्दशः अनुवादकी ओर ही विशेष ध्यान दिया है । 'पंडवरामहि' आदि पद्यके बाद बालचन्द्र एक और पद्य देते हैं, जो इस प्रकार है जं अल्लीणा जीवा तरंति संसारसायरमणंतं । तं भव्वजीवसझं गंदउ जिणसासणं सुइरं ॥ बालचन्द्र नामके अन्य लेखक-कन्नड साहित्यमें बालचन्द्र नामके अनेक टीकाकार तथा ग्रन्थकार हुए हैं, और उनके बारेमें जो कुछ सूचनायें प्राप्त होती हैं, उनके आधारपर एकको दूसरसे पृथक् करना कठिन हैं । म० आर० नरसिंहाचार्य बालचन्द्र नामके चार व्यक्तियोंको बतलाते हैं । अभिनवपम्पके गुरु बालचन्द्र मुनिके बारेमें लिखते हए श्री एम० गोविंद पै लगभग नौ बालचन्द्रोंका उल्लेख करते हैं। किन्त 'कक्कटासन मलधारि' ग यह बालचन्द्र अन्य बालचन्द्रोंसे जदे हो जाते हैं। अपने समाननामा अन्य व्यक्तियोंसे अपनेको जुदा करनेके लिये कुछ साधजन अपने नामके साथ मलधारि विशेषण लगाते थे । श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें ऐसे मुनियोंका उल्लेख मिलता है, जैसे, मलधारि मल्लिषेण, मलधारि रामचन्द्र, मलधारि हेमचन्द्र । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायके मुनिजन इस पदवीका उपयोग करते थे । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी एक मलधारि हेमचन्द्र हुए हैं, जो प्रसिद्ध हेमचन्द्रसे जुदे हैं । ____ मलधारि बालचन्द्रका समय-अपनेको 'कुक्कुटासन मलधारि' लिखनेके सिवा इन बालचन्द्रने अपने बारमें कुछ भी नहीं लिखा । अतः इनका समय निश्चित करना विशेष कठिन है । श्रवणबेलगोलाके शिलालेखोंमें व्यक्तिगत नामोंके रूपमें 'मलधारिदेव' और 'कुक्कुटासन मलधारिदेव' शब्द आते हैं किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि यह हमारे बालचन्द्रकी पदवी है । संभवतः यह किसी प्रसिद्ध आचार्यका नाम था, और उनकी परम्पराके साधुगण इसे पदवीके तौरपर धारण करते थे । शक सं० १२०० (ई० १२७८) के अमरपुरम् समाधि लेखमें, जिसमें एक जैनमन्दिरको कुछ दान देनेका उल्लेख है, बालेन्दु मलधारिदेवका नाम आता है । यद्यपि नामोंमें इन्दु और चन्द्रका परस्परमें परिवर्तन देखा जाता है फिर भी वह बालेन्दु हमारे बालचन्द्र नहीं हो सकते, क्योंकि उनके नामके साथ कुक्कुटासन उपाधि नहीं है, तथा उनका समय भी हमारे टीकाकारसे पहले जाता है। हमारे टीकाकारके बारेमें इतनी बात निश्चित है कि वे ब्रह्मदेवके बादमें हुए हैं क्योंकि उन्होंने ब्रह्मदेवकी टीकाका अनुसरण किया है, और जाँच-पडताल करनेके बाद हमने ब्रह्मदेवका समय ईसाकी तेरहवीं शताब्दी निर्णीत किया है । बालचन्द्र कर्नाटकी थे, सम्भवतः श्रवणबेलगोलाके निकट किसी स्थानपर वे रहते थे । किन्तु ब्रह्मदेव उत्तरप्रान्तके वासी थे, अतः दोनों टीकाकारोंके बीचमें कमसे कम आधी शताब्दीका अंतर अवश्य मानना होगा, क्योंकि उस समयकी यात्रा आदिकी परिस्थितिओंको देखते हुए, दक्षिण प्रांतवासी बालचंद्रके हाथमें उत्तरप्रांतवासी ब्रह्मदेवकी टीकाके पहुँचनेमें इतना समय लग जाना सम्भव है । अतः बालचन्द्रको ईसाकी चौदहवीं शताब्दीके मध्यका विद्वान माना जा सकता है। अध्यात्मी बालचन्द्रकी टीका-म० आर० नरसिंहाचार्यका कहना है, कि अध्यात्मी बालचन्द्रने भी परमात्मप्रकाशपर कन्नडीमें एक टीका बनाई थी, किन्तु इन तीनों कन्नडटीकाओंमेंसे कोई भी उनकी नहीं है । उन्होंने मुझे सूचित किया हैं कि कविचरितेके उल्लेखोंको छोडकर उनके पास इस सम्बन्धमें कोई भी अन्य सामग्री नहीं है । यद्यपि यह कोई अनहोनी बात नहीं है कि अध्यात्मी बालचन्द्रने कुन्दकुन्दके प्राकृत ग्रन्थोंपर अपनी कन्नडटीकाओंकी तरह परमात्मप्रकाशपर भी टीका लिखी होगी किन्तु निश्चयपूर्वक कुछ कहना कठिन है, क्योंकि एक तो कविचरितेका उल्लेख बहुत कमजोर है, दूसरे यह भी सम्भव है कि गलतीसे बालचंद्र मलधारिके स्थानमें बालचंद्र अध्यात्मी लिखा गया हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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