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________________ परमात्मप्रकाश ब्रह्मदेव और उनकी वृत्ति ब्रह्मदेव और उनकी रचनाएँ-अपनी टीकाओंमें ब्रह्मदेवने अपने सम्बन्धमें कुछ नहीं लिखा है । द्रव्यसंग्रहकी टीकामें केवल उनका नाम आता है । बृहद्रव्यसंग्रहकी भूमिकामें पं० जवाहरलालजीने लिखा है कि ब्रह्म उनकी उपाधि थी, जो बतलाती है कि वे ब्रह्मचारी थे, और देवजी उनका नाम था । यद्यपि आराधनाकथाकोशके कर्ता नेमिदत्तने और प्राकृत श्रुतस्कंधके रचयिता हेमचन्द्रने उपाधिके रूपमें ब्रह्म शब्दका उपयोग किया है किन्तु ब्रह्मदेव नाममें 'ब्रह्म' शब्द उपाधिसूचक नहीं मालूम देता; कारण, जैनपरम्परामें ब्रह्ममुनि, ब्रह्मसेन, ब्रह्मसूरि आदि नामोंके अनेक ग्रन्थकार हुये हैं तथा देव कोई प्रचलित नाम भी नहीं है किन्तु प्रायः नामके अन्तमें आता है अतः ब्रह्मदेव एक ही नाम है । परम्पराके अनुसार निम्नलिखित रचनाएँ ब्रह्मदेवकी मानी जाती हैं १२८ १- परमात्मप्रकाशटीका २- बृहद्रव्यसंग्रहटीका ३- तत्वदीपक ४- ज्ञानदीपक ५- त्रिवर्णाचारदीपक ६-प्रतिष्ठातिलक ७-विवाहपटल और ८-कथाकोश । जब तक ग्रन्थ न मिलें, तब तक नम्बर ३, ४ और ७ के विषयमें कुछ नहीं कहा जा सकता । संभवतः नामके आदिमें ब्रह्म शब्द होनेके कारण ब्रह्मनेमिदत्तका कथाकोश और ब्रह्मसूरिके त्रिवर्णाचार (-दीपक) और प्रतिष्ठातिलकको गलतीसे ब्रह्मदेवके नामके साथ जोड दिया है । अतः ब्रह्मदेवकी केवल दो ही प्रामाणिक रचनाएँ रह जाती हैं; एक परमात्मप्रकाशवृत्ति और दूसरी द्रव्यसंग्रहवृत्ति । परमात्मप्रकाशवृत्ति - परमात्मप्रकाशकी वृत्तिमें ब्रह्मदेवजीने अपना नाम नहीं दिया । बालचन्द्र ब्रह्मदेवकी एक संस्कृतटीकाका उल्लेख करते हैं, दूसरे, दौलतरामजी संस्कृतवृत्तिको ब्रह्मदेवरचित कहते हैं, तीसरे, परमात्मप्रकाशकी वृत्ति द्रव्यसंग्रहकी वृत्तिसे, जिसमें ब्रह्मदेवने अपना नाम दिया है, बहुत मिलती जुलती हैं । अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि दोनों वृत्तियाँ एक ही ब्रह्मदेवकी हैं । ब्रह्मदेवकी व्याख्या शुद्ध साहित्यिक व्याख्या है, वे अर्थपर अधिक जोर देते हैं, इसलिये व्याकरणकी गुत्थियाँ एक दो स्थानपर ही सुलझाई गई हैं । सबसे पहले वे शब्दार्थ देते हैं, फिर नयोंका - खासकर निश्चयनयका अवलम्बन लेते हुए विशेष वर्णन करते हैं । किन्तु उनके ये वर्णन द्रव्यसंग्रहकी टीकाके वर्णनोंके समान कठिन नहीं हैं । यदि यह टीका न होती तो परमात्मप्रकाश इतना प्रसिद्ध न होता; उसकी ख्यातिका कारण यह टीका ही है । जयसेन और ब्रह्मदेव - पदच्छेद, उत्थानिका, प्रकरणसंगत चर्चा तथा ब्रह्मदेवकी टीकाकी कुछ अन्य बातें हमें जयसेनकी टीकाकी याद दिलाती हैं। ब्रह्मदेवने जयसेनका पूरा पूरा अनुकरण किया है। परमात्मप्रकाशकी टीकाकी कुछ चर्चाएँ जयसेनके पञ्चास्तिकायकी टीकाकी चर्चाओंके समान हैं। उदाहरणके लिये परमात्मप्रकाश २-२१ और पञ्चास्तिकाय २३; प. प्र. २-३३ और पंचा० १५२; तथा प्र. प. २-३६ और पंचा० १४६ की टीकाओंको परस्परमें मिलाना चाहिए । ब्रह्मदेवका समय -ब्रह्मदेवने अपने ग्रन्थोंमें उनका रचना- काल नहीं दिया है। पं० दौलतरामजी ( ई० १८ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध) कहते हैं कि ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके आधारपर उन्होंने अपनी हिन्दीटीका बनाई है। पं० जवाहरलालजी लिखते हैं कि शुभचन्द्रने कत्तिगेयाणुप्पेक्खाकी टीकामें ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रहवृत्तिसे बहुत कुछ लिया है । मलधारि बालचन्द्र ब्रह्मदेवकी टीकाका स्पष्ट उल्लेख करते हैं, किन्तु बालचन्द्रका समय स्वतन्त्र आधारोंपर निश्चित नहीं किया जा सकता । जैसलमेरके भण्डारमें ब्रह्मदेवकी द्रव्यसंग्रहवृत्तिकी एक प्रति मौजूद है जो संवत् १४८५ (१४२८ ई०) में माण्डवमें लिखी गई थी, उस समय वहाँ राय श्रीचान्दराय राज्य करते थे । इस प्रकार इन बाहिरी प्रमाणोंके आधारपर ब्रह्मदेवके समयकी अन्तिम अवधि १४२८ ई० से पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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