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________________ प्रस्तावनाका हिंदी सार ईसाकी छट्ठी शताब्दीके बादमें । इस प्रकार चण्डके व्याकरणके व्यवस्थित (revised) रूपका समय ईसाकी सातवीं शताब्दीके लगभग रखा जा सकता है, अतः परमात्मप्रकाशको प्राकृतलक्षणसे पुराना मानना चाहिये । जोइन्दुके समयकी आरम्भिक अवधि - ऊपर यह बताया गया है कि जोइन्दु, कुन्दकुन्दके मोक्खपाहुड और पूज्यपादके समाधिशतकके बहुत ऋणी हैं । वास्तवमें परमात्मप्रकाशमें समाधिशतकके कुछ तात्त्विक 'विचारोंको बड़े परिश्रमसे निबद्ध किया है । कुन्दकुन्दका समय ईस्वी सन्के प्रारम्भके लगभग है, और पूज्यपादका पाँचवीं शताब्दीके अन्तिम पादसे कुछ पूर्व । इस चर्चाके आधारपर मैं परमात्मप्रकाशको समाधिशतक और प्राकृतलक्षणके मध्यकालकी रचना मानता हूँ । इसलिये जोइन्दु ईसाकी छुट्टी शताब्दीमें हुये हैं । ३ परमात्मप्रकाशकी टीकाएँ १२७ 'क' प्रतिकी कन्नडटीका बालचन्द्रकी टीका और 'क' प्रतिकी कन्नडटीका - यह लिखा जा चुका है कि अध्यात्मी बालचन्द्रने जिन्होंने कुन्दकुन्दत्रयीपर कन्नडटीका बनाई है, परमात्मप्रकाशपर भी एक कन्नडटीका रची है । परमात्मप्रकाशकी 'क' प्रतिमें एक कन्नडटीका पाई जाती है । किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि यह टीका बालचन्द्रकी ही है क्योंकि 'क' प्रतिसे इस सम्बन्धमें कोई सूचना नहीं मिलती और म० आर० नरसिंहाचार्यने बालचन्द्रकी टीकाका कुछ अंश नहीं दिया, जिससे 'क' प्रतिकी टीका मिलाई जा सके । कन्नडटीकाका परिचय-‘क' प्रतिकी कन्नडटीकामें परमात्मप्रकाशके दोहोंकी व्याख्या बहुत अच्छे रूपमें की गई है । जहाँ तक मैंने इसे उलट-पलट कर देखा, अपभ्रंश शब्दोंका तुल्यार्थक संस्कृत शब्द कहीं भी मेरे देखने में नहीं आया, केवल कन्नडमें उनके अर्थ दिये हैं । अनुवादके कुछ अंश टीकाकारके भाषापाण्डित्यका परिचय देते हैं । मुझे कुछ ऐसे शब्द भी मिले, जिनके ठीक ठीक अर्थ टीकाकारने नहीं किये हैं। टीका सरल और सादी है, और दोहोंका अर्थ करनेमें काफी सावधानीसे काम लिया हैं । ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके समान न तो इनमें विशेष दार्शनिक विवेचन ही है, और न उद्धरण ही । इसकी स्वतन्त्रता-ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके साथ मैंने इसके कई स्थलोंका मिलान किया है, और मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि टीकाकार ब्रह्मदेवकी टीकासे अपरिचित है । यदि उनके सामने ब्रह्मदेवकी टीका होती तो उनके समान वे भी अपभ्रंश शब्दोंके संस्कृत रूप देते और विशेष विवेचन तथा उद्धरणोंसे अपनी टीकाकी शोभा बढाते । इसके सिवा दोनोंमें कुछ मौलिक असमानताएँ भी हैं । ब्रह्मदेवकी अपेक्षा 'क' प्रतिमें ११२ पद्य कम हैं । तथा अनेक ऐसे मौलिक पाठान्तर और अनुवाद हैं, जो ब्रह्मदेवकी टीकामें नहीं पाये जाते । 'क' प्रति की टीकाका समय- इस टीकाके गम्भीर अनुसन्धानके बाद मैंने निष्कर्ष निकाला है कि न केवल ब्रह्मदेवकी टीकासे, बल्कि परमात्मप्रकाशकी करीब करीब सभी टीकाओंसे यह टीका प्राचीन मालूम होती है । १. अपभ्रंश-पाठावलीमें श्री एम० सी० मोदीने परमात्मप्रकाशसे भी कुछ पद्य संकलित किये हैं। उनपर टिप्पण करते हुए उन्होंने मेरे ‘जोइन्दु' विषयक लेखका उल्लेख किया है, और लिखा है कि यद्यपि जोइन्दुको हेमचन्द्रका पूर्वज कहा जा सकता है किन्तु उन्हें वि० सं० की दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दीसे भी पहलेका बतलाना ठीक नहीं है । श्री मोदीके निष्कर्ष निकालनेके ढंगको देखकर मुझे मेक्षमूलरके एक वाक्यका स्मरण आता है - "ऐतिहासिक व्यक्तियोंका समय जाननेकी विद्या केवल रुचिकी बात नहीं है, जो केवल स्मरणके प्रभावसे ही निश्चित की जा सके ।" अपभ्रंश स्वरोंका विचार करनेपर 'अण्णु' और 'अणु' समय निर्णय करनेमें सहायक नहीं हो सकते । यद्यपि ब्रह्मदेवने 'जवला' का अर्थ 'समीपे' किया है किन्तु यह अर्थ बिल्कुल अप्रासङ्गिक है । यह संस्कृतके 'यमल' शब्दसे बना है, जिसका अर्थ 'जोडा' होता है । 'जवल' शब्द श्वेताम्बर आगमोंमें भी आता हैं । अपभ्रंशमें 'म' का 'व' हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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