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प्रस्तावनाका हिंदी सार
१२५ सामग्री ली है; और अपने अपभ्रंश-व्याकरणके सूत्रोंके उदाहरणमें, थोडे बहुत परिवर्तनके साथ परमात्मप्रकाशसे कुछ दोहे भी उद्धृत किये हैं । हेमचंद्र १०८९ ई० में पैदा हुए और ११७३ ई० में स्वर्गवासी हुए । किसी भाषाके इतिहासमें यह कोई अनहोनी घटना नहीं है कि साहित्यिक रूपमें अवतरित होनेके बाद ही-चाहे वह साहित्यिकरूप परम्परागत स्मृति रूपमें रहा हो या पुस्तकरूपमें-उस भाषाके विशाल व्याकरणोंकी रचना होती है। अतः इस कल्पनाके लिये पर्याप्त साधन नहीं हैं कि हेमचंद्रके द्वारा निबद्ध अपभ्रंश ही उस समयकी प्रचलित भाषा थी । यह कहना अधिक युक्तिसंगत होगा कि अपने व्याकरणके द्वारा उन्होंने अपभ्रंशके साहित्यिक रूपको निबद्ध किया है, और यह रूप उनके समयमें प्रचलित भाषाके पूर्वका या उससे भी अधिक प्राचीन रहा होगा । क्योंकि व्याकरणका आधार केवल बोलचालकी भाषा नहीं होती । अतः हेमचंद्रसे कमसे कम दो शताब्दी पूर्व जोइंदुका समय मानना होगा । . (५) प्रो० हीरालालजीने बतलाया है कि हेमचंद्रने रामसिंहके दोहापाहुडसे कुछ पद्य उद्धृत किये हैं और रामसिंहने जोइंदुके योगसार और परमात्मप्रकाशसे बहुतसे दोहे लेकर अपनी रचनाको समृद्ध किया है । अतः जोइंदु हेमचंद्रके केवल पूर्ववर्ती ही नहीं है किंतु उन दोनोंके मध्यमें रामसिंह हुए हैं।
(६) ऊपर मैं बतला आया हूँ कि देवसेनके तत्त्वसारके कुछ पद्य परमात्मप्रकाशके दोहोंसे बहुत मिलते हैं। यह भी संभव हो सकता है कि दोनोंके रचयिताओंने किसी एक स्थानसे उन्हें लिया हो। किंत पद्योंकी परिस्थिति और ऊपर बतलाये गये कारणोंको दृष्टिमें रखते हुए मेरा मत है कि देवसेनने योगीन्दुका अनुसरण किया है । अपनी रचनाओंमें देवसेनने अपने पूर्ववर्ती ग्रंथोंका प्रायः उपयोग किया है । उन्होंने वि० सं० ९९० (९३३ ई०) में अपना दर्शनसार समाप्त किया था ।
(७) नीचेके दो पद्य तुलनाके योग्य हैं१ योगसार, ६५
विरला जाणहि तत्तु बुहु विरला णिसुणहि तत्तु ।
विरला झायहि तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ॥ २ कत्तिगेयाणुष्पेक्खा, २७९
विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदो तच्चं ।
विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि ॥ (८) कुमारकी कत्तिगेयाणुष्पेक्खा अपभ्रंश भाषामें नहीं लिखी गई है, अतः वर्तमानकाल तृतीयपुरुषके बहुवचनके रूप 'णिसुणहि' और 'भावहि' उसमें जबरन घुस गये हैं, किन्तु योगसारमें वे ही रूप ठीक हैं । दोनों पद्योंका आशय एक ही है, केवल दोहेको गाथामें परिवर्तित कर दिया है, किन्तु यह किसी लेखककी सूझ नहीं है, बल्कि, कुमारने ही जान या अनजानमें, जोइन्दुके दोहेका अनुसरण किया है । कुछ दन्तकथाओंने कुमारके व्यक्तित्वको अन्धकारमें डाल दिया है, और उनका समय अभी तक भी निश्चित नहीं हो सका है। मौखिक परम्पराओंके आधारपर यह कहा जाता है कि विक्रमसंवत्से कोई दो या तीन शताब्दी पहले कुमार हुए हैं, और ऐसा मालूम होता है कि आधुनिक कुछ विद्वानोंपर इस परम्पराका प्रभाव भी हैं । कुमारकी कत्तिगेयाणुप्पेक्खाकी केवल एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध है, जो १५५६ ई० में शुभचन्द्रने बनाई थी । किन्हीं प्राचीन टीकाओंमें कुमारका उल्लेख भी नहीं मिलता । कुमारने बारह अनुप्रेक्षाओंकी गणनाका क्रम तत्त्वार्थसूत्रके अनुसार रक्खा है, जो वट्टकेर, शिवार्य और कुन्दकुन्दके क्रमसे थोडा भिन्न है । ये सब बातें कुमारकी परम्परागत प्राचीनताके विरुद्ध जाती हैं । यद्यपि कत्तिगेयाणुष्पेक्खाका कोई शुद्ध संस्करण प्रकाशित नहीं हुआ है, किन्तु गाथाओंके देखनेसे पता चलता है कि उनकी भाषा प्रवचनसारके जितनी प्राचीन नहीं है । २५ वी गाथाके क्षेत्रपाल' शब्दसे अनुमान होता है कि कुमार दक्षिणप्रान्तके निवासी थे, जहाँ
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