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________________ १२४ परमात्मप्रकाश अमृताशीति और निजात्माष्टक अमृताशीति - यह एक उपदेशप्रद रचना है; इसमें विभिन्न छन्दोंमें ८२ पद्य हैं और जैनधर्मके अनेक विषयोंकी उनमें चर्चा है । हम नहीं जानते कि इसमें सन्धिस्थल सम्पादकने जोडा है, या प्रतिमें ही था ? अन्तिम पद्यमें योगीन्द्र शब्द आया है, जो चन्द्रप्रभका विशेषण भी किया जा सकता है। परमात्मप्रकाशके कर्ता के साथ इसका सम्बन्ध जोडनेके लिये कोई प्रमाण नहीं है । इस रचनामें विद्यानंदि, जटासिंहनंदि, और अकलंकदेवके भी कुछ पद्य हैं । कुछ पद्य भर्तृहरिके शतकत्रयसे मिलते हैं । पद्मप्रभमलधारिदेवने अपनी नियमसारकी टीकामें इससे तीन पद्य ( नं० ५७, ५८ और ५९ ) उद्धृत किये हैं । उसी टीकामें निम्नलिखित एक अन्य पद्य भी उद्धृत है तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः । तथाहि मुक्त्यङ्गनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं दुर्भावनातिमिरसंहतिचंद्रकीर्तिम् । संभावयामि समतामहमुञ्चकैस्तां या सम्मता भवति संयमिनामजस्रम् ॥ किन्तु यह पद्य अमृताशीतिमें नहीं है । प्रेमीजीका अनुमान है कि सम्भवतः यह पद्य योगीन्द्ररचित कहे जानेवाले अध्यात्मसंदोहका है । निजात्माष्टक - इसकी भाषा प्राकृत है; इसमें स्रग्धरा छन्दमें आठ पद्य हैं, और उनमें सिद्धपरमेष्ठीका स्वरूप बतलाया है । किसी भी पद्यमें रचयिताका नाम नहीं दिया, किन्तु संस्कृतमें रचित अंतिम वाक्यमें योगीन्द्रका नाम आया है । परन्तु परमात्मप्रकाशके कर्ताके साथ इसका सम्बन्ध जोड़नेके लिये यह काफी प्रमाण नहीं है । निष्कर्ष- इस लम्बी चर्चाके बाद हम इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि जिस परम्पराके आधारपर योगीन्द्रको उक्त ग्रन्थोंका रचयिता कहा जाता है, वह प्रामाणिक नहीं है । अतः वर्तमानमें परमात्मप्रकाश और योगसार ये दो ही ग्रन्थ जोइंदुरचित सिद्ध होते हैं । जोइन्दुका समय समयका विचार - जोइंदुके उक्त दोनों ग्रंथोंसे उनके समयके बारेमें कुछ भी मालूम नहीं होता । अतः अब हमारे सामने एक ही मार्ग शेष रह जाता है, और वह है जोइन्दुके ग्रंथसे उद्धरण देनेवाले ग्रंथोंका निरीक्षण | निम्नलिखित प्रमाणोंके आधार पर हम जोइन्दुके समयकी अंतिम अबधि निर्धारित करनेका प्रयत्न करते हैं (१) श्रुतसागर, जो ईसाकी सोलहवीं शताब्दीके प्रारम्भमें हुए हैं, षट्प्राभृतकी टीकामें परमात्मप्रकाशसे ६ पद्य उद्धृत करते हैं । (२) परमात्मप्रकाशपर, मलधारि बालचंद्रने कनडीमें और ब्रह्मदेवने संस्कृतमें टीका बनाई है, और उन दोनोंका समय क्रमश: ईसाकी चौदहवीं और तेरहवीं शताब्दीके लगभग है । (३) जयसेन, जिन्होंने कुंदकुंदके पञ्चास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसारपर संस्कृतमें टीकाएँ रची हैं, जोइन्दु और उनके दोनों ग्रंथोंसे अच्छी तरह परिचित हैं । समयसारकी टीकामें वे परमात्मप्रकाशका उल्लेख करते हैं, और उससे एक पद्य भी उद्धृत करते हैं । पञ्चास्तिकायकी टीकामें भी वे एक पद्य उद्धृत करते हैं, जो योगसारका ५६ वाँ पद्य है । जयसेनका समय ईसाकी बारहवीं शताब्दीके उत्तरार्द्धके लगभग है । (४) ऊपर यह बतलाया है कि हेमचंद्र परमात्मप्रकाशसे परिचित हैं, उन्होंने परमात्मप्रकाशसे कुछ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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