SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावनाका हिंदी सार १२३ लक्ष्मीचन्द्र और लक्ष्मणकी एकता ही सिद्ध नहीं हो सकी तो 'प' प्रतिके पाठमें सुधार करनेका कारण ही नहीं रहता । ४ अन्तिम आधार भी अन्य तीन आधारोंपर ही निर्भर है, अतः उसके बारेमें अलग समाधान करनेकी आवश्यकता नहीं है । इस तरह लक्ष्मीचन्द्रके विरुद्ध प्रो० हीरालालजीकी आपत्तियाँ उचित नहीं हैं और उनका दावा कि देवसेन इसके कर्ता हैं, प्रमाणित नहीं हो सका, अतः श्रुतसागरके उल्लेख तथा अन्य प्रमाणोंके आधारपर लक्ष्मीचन्द्रको ही सावयधम्मदोहाका कर्ता मानना चाहिये । यह लक्ष्मीचन्द्र श्रुतसागरके समकालीन लक्ष्मीचन्द्रसे जुदे हैं । जहाँतक हम इनके बारेमें जानते हैं, श्रुतसागर और ब्रह्म नेमिदत्त ( १५२८ ई०) दोनोंसे यह अधिक प्राचीन है । दोहा पाहुड परिचय - इस ग्रन्थकी उपलब्ध दो प्रतियोंमेंसे एकमें इसका नाम दोहापाहुड लिखा है, और दूसरीमें पाहुडदोहा । प्रो० हीरालालजीने इसकी प्रस्तावनामें इसके नामका अर्थ समझाया हैं, और उनके बतलाये अर्थ अनुसार भी ग्रन्थका नाम दोहापाहुड होना चाहिये । परमात्मप्रकाशकी तरह यह भी एक आध्यात्मिक ग्रन्थ हैं, इसमें ग्रन्थकारने आत्मतत्त्वपर विचार किया है । इसकी उपलब्ध प्रति अपनी असली हालत में नहीं हैं; उसके अन्तमें दो पद्य संस्कृतमें हैं, और दोहा नं० २११ - जिसमें रामसिंहका नाम आता है, जो एक प्रतिके अन्तिम वाक्यके अनुसार ग्रन्थके रचयिता हैं - के बाद दो गाथाएँ महाराष्ट्री में हैं । जोइन्दु-‘क' प्रतिकी अन्तिम सन्धिमें इसे योगेन्द्रकी रचना बतलाया हैं, और इसके बहुतसे दोहे परमात्मप्रकाश और योगसारसे मिलते जुलते भी हैं । किन्तु निम्नलिखित कारणोंसे इसको योगीन्द्रकी रचना मानना साधार प्रतीत नहीं होता - ( १ ) परमात्मप्रकाश और योगसारकी तरह इसमें उन्होंने अपना नाम नहीं दिया, जबकि पद्य नं० २११ रामसिंहका नाम आता हैं । (२) दोहापाहुडमें अकारान्त शब्दके षष्ठीके एकवचनमें 'हो' और 'हुँ' प्रत्यय आते हैं, किन्तु परमात्मप्रकाशमें केवल 'हँ' ही पाया जाता है, तथा तुहारउ, तुहारी, दोहिं मि, देहहंमि, कहिं मि आदि रूप परमात्मप्रकाशमें नहीं पाये जाते । (३) 'द' प्रतिके अन्तिम वाक्यमें रामसिंहको इसका कर्ता बतलाया है, जिसका नाम पद्य नं० २११ में भी आता हैं । प्रारम्भमें मुझे सन्देह था कि परमात्मप्रकाशके 'शान्ति' की तरह क्या रामसिंह भी कोई प्राचीन ग्रन्थकार है ? किन्तु दोहा पाहुडकी गहरी छानबीनके पश्चात् मैं इस परिणामपर पहुँचा हूँ कि इसके जोइन्दुकृत होनेमें कोई प्रबल प्रमाण नहीं हैं । कुछ पद्योंकी समानता और अपभ्रंश भाषाको लक्षमें रखकर किसीने इसकी सन्धिमें योगीन्द्रका नाम जोड दिया है, जबकि ग्रन्थमें रामसिंहका नाम आता है । रामसिंह - दोहापाहुडके रामसिंह रचित होनेमें दो प्रमाण हैं, एक तो इसकी उपलब्ध दोनों प्रतियोंमें ग्रन्थके अन्दर उनका नाम आता है। दूसरे, एक प्रतिकी सन्धिमें भी उनका नाम आया है । उनके विरुद्ध केवल एक ही बात है कि अन्तिम पद्यमें उनका नाम नहीं आया । किन्तु मैं ऊपर लिख आया हूँ कि उपलब्ध प्रति अपनी असली हालत में नहीं है, और २११ के बाद बहुतसे पद्य बादके मिलाये जान पडते हैं । अतः उपलब्ध सामग्रीके आधारपर रामसिंहको ही इसका कर्ता मानना चाहिये । रामसिंह योगीन्दुके बहुत ऋणी हैं, क्योंकि उनके ग्रन्थका एक पञ्चमांश - जैसा कि प्रो० हीरालालजी कहते हैं - परमात्मप्रकाशसे लिया गया है । रामसिंह रहस्यवादके प्रेमी थे, और संभवतः इसीसे प्राचीन ग्रन्थकारोंके पद्योंका उपयोग उन्होंने अपने ग्रन्थमें किया है । उनके समय के बारेमें केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जोइन्दु और हेमचन्द्रके मध्यमें वे हुए हैं । श्रुतसागर, ब्रह्मदेव, जयसेन और हेमचन्द्रने उनके दोहापाहुडसे कुछ पद्य उद्धृत किये हैं । दोहापाहुड और सावयधम्मदोहामें दो पद्य बिल्कुल समान हैं । किन्तु एक तो देवसेन सावयधम्मदोहाके कर्ता प्रमाणित नहीं हो सके; दूसरे, प्रक्षेपकोंसे पूर्ण दोहापाहुडकी प्रतिके आधारपर उसकी आलोचना भी नहीं की जा सकती । अतः नई प्रतियाँ मिलने पर इस समस्यापर विशेष प्रकाश डाला जा सकेगा । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy