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________________ १२२ परमात्मप्रकाश ३ देवसेनको 'दोहा' रचनेकी बहुत चाह थी । और संभवतः उस समय छन्दशास्त्रमें यह एक नवीन आविष्कार था। किन्तु उनके उक्त आधार प्रबल नहीं हैं । प्रथम, 'क' प्रति विश्वसनीय नहीं हैं, क्योंकि अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा उसमें पद्यसंख्या सबसे अधिक है, तथा वह सबके बादकी लिखी हुई है । इसके सिवा, जिस दोहेमें देवसेनका नाम आता है, वह केवल सदोष ही नहीं है किन्तु उसमें स्पष्ट अशुद्धियाँ हैं । उसका 'देवसेनै' पाठ बडा ही विचित्र है, और पुस्तकभरमें इस ढंगका दूसरा उदाहरण खोजनेपर भी नहीं मिलता । छन्दशास्त्रकी दृष्टिसे भी उस दोहेकी दोनों पंक्तियाँ अशुद्ध हैं, और सबसे मजेकी बात तो यह है कि प्रो० हीरालालजीने स्वसम्पादित सावयधम्मदोहाके मूलमें उसे स्थान नहीं दिया । अतः इस प्रकारके अन्तिम दोहेका सम्बन्ध सावयधम्मदोहाके कतकेि साथ नहीं जोडा जा सकता, और हम यह विश्वास नहीं कर सकते कि दर्शनसारके रचयिता देवसेनने इसे रचा है । देवसेनके चार प्राकृत ग्रंथोंका निरीक्षण करनेपर हम देखते हैं कि भावसंग्रहमें वे अपना नाम 'विमलसेनका शिष्य देवसेन' देते हैं । आराधनासारमें केवल 'देवसेन' लिखा है । दर्शनसारमें 'धारानिवासी देवसेन गणी' आता है, और तत्त्वसारमें 'मुनिनाथ देवसेन' लिखा है । किन्तु सावयधम्मदोहामें इनमेंसे एकका भी उल्लेख नहीं हैं । अतः पहली युक्ति ठीक नहीं हैं। यह सत्य है कि भावसंग्रह और सावयधम्मदोहाकी कुछ चर्चाएँ मिलती जुलती हैं, किन्तु प्रो० हीरालालजीके द्वारा उद्धृत १८ सदृश वाक्योंमेंसे मुश्किलसे दो तीन वाक्य आपसमें मेल खाते हैं । परम्परागत शैलीके आधारपर रचे गये साहित्यमें कुछ शब्दों तथा भावोंकी समानता कोई मूल्य नहीं रखती । भावसंग्रहमें कुछ अपभ्रंश पद्य पाये जाते हैं, और सम्पादकने लिखा है कि भावसंग्रहकी प्रतियोंमें देवसेनके बादके ग्रंथकारोंके भी पद्य पाये जाते हैं, अत: यह असंभव नहीं हैं कि किसी लेखककी कृपासे सावयधम्मदोहाके पद्य उसमें जा मिले हों। तीसरे आधारसे भी कोई बात सिद्ध नहीं होती है, क्योंकि दोहाछंद कब प्रचलित हुआ यह अभी तक निर्णीत नहीं हो सका है | कालिदासके विक्रमोर्वशीयमें हम एक दोहा देखते हैं; रुद्रटके काव्यालङ्कारमें दो दोहे पाये जाते हैं, और आनंदवर्धन (लगभग ८५० ई०) ने भी अपने ध्वन्यालोकमें एक दोहा उद्धृत किया हैं । रुद्रटका समय नवीं शताब्दीका प्रारम्भ समझा जाता है । यदि यह मान भी लिया जावे कि देवसेनको दोहा रचनेकी बहुत चाह थी, तो भी उनका सावयधम्मदोहाका कर्ता होना इससे प्रमाणित नहीं होता। लक्ष्मीचन्द्र-'प' 'भ' और 'भ ३' प्रतियाँ इसे लक्ष्मीचन्द्रकृत बतलाती हैं । श्रुतसागरने इस ग्रंथसे नौ पद्य उद्धृत किये हैं, उनमेंसे एक वह लक्ष्मीचन्द्रका बतलाते हैं, और शेष लक्ष्मीधरके; अतः श्रुतसागरके उल्लेखके अनुसार लक्ष्मीचंद्र उपनाम लक्ष्मीधर सावयधम्मदोहाके कर्ता हैं । किंतु निम्नलिखित कारणोंसे प्रो० हीरालालजीने लक्ष्मीचन्द्रको इसका कर्ता नहीं माना । १ 'भ' प्रतिके अन्तिम पद्यमें लिखा है कि यह ग्रन्थ योगीन्द्रने बनाया है, इसकी पञ्जिका लक्ष्मीचंद्रने और वृत्ति प्रभाचन्द्रने । २ मल्लिभूषणके शिष्य लक्ष्मण ही लक्ष्मीधर हैं । ३ 'प' प्रतिका लेख 'लक्ष्मीचन्द्रविरचिते' लेखककी भूलका परिणाम है उसके स्थानपर 'लक्ष्मीचन्द्रलिखिते' या 'लक्ष्मीचन्द्रार्थलिखिते' होना चाहिए था । ४ लक्ष्मीचन्द्ररचित किसी दूसरे ग्रन्थसे हम परिचित नहीं हैं । इसका समाधान निम्न प्रकार है-१ 'भ' प्रतिका अन्तिम पद्य बादमें जोडा गया है, क्योंकि वह अन्तिम सन्धि ‘इति श्रावकाचारदोहकं लक्ष्मीचन्द्रविरचितं समाप्तं' के बाद आता है । और उसका अभिप्राय भी सन्धिसे विरुद्ध है | २ 'प' प्रतिके अन्तमें लिखे लक्ष्मण और लक्ष्मीचन्द्र एक ही व्यक्तिके दो नाम नहीं हैं, क्योंकि पहले 'इति उपासकाचारे आचार्य श्रीलक्ष्मीचन्द्रविरचिते दोहकसूत्राणि समाप्तानि' लिखा हैं, और फिर लिखा है कि सम्वत् १५५५ में यह दोहा श्रावकाचार मल्लिभूषणके शिष्य पं० लक्ष्मणके लिये लिखा गया । इससे स्पष्ट है कि सन्धिमें ग्रन्थकारका नाम आया है और बादकी पंक्ति लेखकने लिखी है | ३ जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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