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________________ परमात्मप्रकाश महासमाधि-इस ग्रन्थमें, पारिभाषिक शब्दोंकी भरमारके बिना महासमाधिका बडा ही प्रभावक वर्णन है, जो ज्ञानार्णव, योगसार, तत्त्वानुशासन आदिमें भी पाया जाता हैं । उस ध्यानकी प्राप्तिके लिये जिसमें आत्मा परमात्माका साक्षात्कार करता है, मनकी स्थिरता अत्यन्त आवश्यक है । उस समय न तो इष्ट वस्तुओंके प्रति मनमें राग ही होना चाहिए और न अनिष्टके प्रति द्वेष; तथा मन वचन और काय एकाग्र होने चाहिये और आत्मा आत्मामें लीन होना चाहिये । इस सिलसिलेमें दो अवस्थाएँ उल्लेखनीय हैं-एक सिद्ध और दूसरी अर्हत । समस्त कर्मोंका नाश करके प्रत्येक आत्मा सिद्धपद प्राप्त कर सकता है, किन्तु अर्हत्पद केवल तीर्थङ्कर ही प्राप्त कर सकते हैं । तीर्थङ्कर धार्मिक सिद्धान्तोंके प्रचारमें अपना कुछ समय देते हैं, किन्तु सिद्ध सदा अपनेमें ही लीन रहते हैं । अतः समाजके लिये, तीर्थङ्कर विशेष लाभदायक होते हैं। गूढवादकी कुछ विशेषताएँ-गूढवाद या रहस्यवादकी व्याख्या कर सकना सरल नहीं है । यह मनकी उस अवस्थाको बतलाता है, जो तुरन्त निर्विकार परमात्माका साक्षात् दर्शन कराती है । यह आत्मा और परमात्माके बीचमें पारस्परिक अनुभूतिका साक्षात्कार है, जो आत्मा और अन्तिम सत्यकी एकताको बतलाता है । इसमें प्रत्येक जीव अपनी पूर्णता और स्वतन्त्रताका अनुभव करता है । दूसरे, इसका अनुभव करनेके लिए ऐसे आत्माकी आवश्यकता है, जो अपनेको ज्ञान और सुखका भण्डार समझे तथा अपनेको परमात्म पदके योग्य जाने । तीसरे, यदि गूढवाद आध्यात्मिक और धार्मिक हो तो धर्मको ध्येय और ध्यातामें एकत्व स्थापित करनेका उपाय अवश्य बताना चाहिए । चौथे, गूढवाद साधारणतया संसारके सम्बन्धमें और विशेषतया सांसारिक प्रलोभनोंके सम्बन्धमें स्वाभाविक उदासीनता दिखाता है । पाँचवें, गढवादसे उस सामग्रीकी प्राप्ति होती है जो लौकिकज्ञानके साधन मन और इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही पूर्ण सत्यको जान लेती है । छटे, धार्मिक गूढवादमें कुछ नैतिक नियम रहते हैं, जो एक आस्तिकको अवश्य पालने चाहिए । सातवें, गूढवादसम्बन्धी रहस्योंका उपदेश करनेवाले गुरुओंका सम्मान करना भी एक गूढवादीका कर्तव्य है । जैनधर्ममें गूढवाद-क्या जैनधर्म सरीखे वेदविरोधी धर्ममें गूढवादका होना संभव है ? कुन्दकुन्द और पूज्यपादके ग्रन्थोंके अवलोकनसे उक्त शंका निराधार प्रमाणित होती है। यहाँ यह अधिक युक्तिसङ्गत होगा कि प्राचीन जैनग्रन्थोंसे कुछ बातें (Data) सङ्कलित की जावें, और देखा जावें कि जैनधर्मने गूढवादको कौन-सी मौलिक वस्तु प्रदान की है, और वेदान्तके गूढवादसे उसमें क्या समानता या अन्तर है ? ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि जैनतीर्थङ्कर संसारके गिने चुने गूढवादियोंमेंसे हैं । जैनधर्मके प्रथम तीर्थङ्कर श्रीऋषभदेवके सम्बन्धमें प्रो. रानडेने ठीक ही लिखा है, कि वे एक भिन्न ही प्रकारके गूढवादी थे, उनकी अपने शरीरके प्रति अत्यन्त उदासीनता उनके आत्मसाक्षात्कारको प्रमाणित करती है । पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि भागवतमें प्राप्त ऋषभदेवका वर्णन जैन पौराणिक वर्णनोंसे बिल्कुल मिलता है | जैनधर्ममें गूढवाद-सम्बन्धी सामग्री-ईश्वरवादियोंके अद्वैतवादसे कहीं अधिक अद्वैतवाद और ईश्वरवादको गूढवादका आधार माना जाता है । अनुभवकी श्रेष्ठ दशामें आत्मा किसी दैवी शक्तिके साथ एकताका अनुभव करता है । विलियम जेम्सका कहना है कि मनकी गूढ वृत्तियाँ प्रत्येक मात्रामें सर्वदा नहीं तो प्रायः अद्वैतवादका समर्थन करती हैं, जैसा कि इतिहाससे प्रदर्शित होता है । अतः गूढवादमें अद्वैतवादके लिए पर्याप्त स्थान है, जैसा कि ऊपर कह आये हैं । वेदान्तमें तो ब्रह्म ही सब कुछ है । किन्तु, ज्ञानदेवका आध्यात्मिक गूढवाद अद्वैत और द्वैतको मिला देता है क्योंकि उसमें एकत्व और नानात्व, दोनोंको ही स्थान दिया है । जैन गूढवाद दो तत्त्वोंपर अवलम्बित है । वे दो तत्त्व हैं-आत्मा और परमात्मा । किन्तु परमात्मासे मतलब ईश्वर है, न कि जगन्नियंता । जैनदृष्टिसे आत्मा और परमात्मामें कोई अन्तर नहीं है, केवल संसार अवस्थामें आत्मा कर्मबन्धके कारण परमात्मा नहीं हो सकता । कर्मोंका नाश करके गूढवादी इस एकता या १ महाराष्ट्रमें गूढवाद, पृ० ९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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