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प्रस्तावनाका हिंदी सार
११७ समानताका अनुभव करता है । जैनधर्मकी परमात्मा सम्बन्धी मान्यता आत्मकैवल्य (Personal absolute) से कुछ मिलती-जुलती है । जैनधर्ममें आत्मा परमात्मा हो जाता है, किन्तु वेदान्तियोंकी तरह ब्रह्ममें लीन नहीं होता । जैनधर्ममें आध्यात्मिक अनुभवसे मतलब एक विभक्त आत्माका एकत्वमें मिल जाना नहीं हैं, किन्तु उसका सीमित व्यक्तित्व उसके सम्भावित परमात्माका अनभवन करता है । कम्मपयडि. कम्मपाहड, कसायपाहुड, गोम्मटसार आदि प्राचीन जैनशास्त्रोंमें बतलाया है कि किस तरह आत्मा गुणस्थानोंपर आरोहण करता हुआ उन्नत, उन्नततर होता जाता है और किस तरह प्रत्येक गुणस्थानमें उसके कर्म नष्ट होते जाते हैं । यहाँ उन सब बातोंका वर्णन करनेके लिये स्थान नहीं हैं ।
वास्तवमें जैनधर्म एक तपस्याप्रधान धर्म है । यद्यपि उसमें गृहस्थाश्रमका भी एक दर्जा है, किन्तु मोक्षप्राप्तिके इच्छुक प्रत्येक व्यक्तिको साधु-जीवन बिताना आवश्यक एवं अनिवार्य होता है । साधुओंके आचार विषयक नियम अति कठोर हैं: वे एकाकी विहार नहीं कर सकते. क्योंकि सांसारिक प्रलोभन सब जगह वर्तमान है । वे अपना अधिक समय स्वाध्याय और आत्मध्यानमें ही बिताते हैं; और प्रतिदिन गुरुके पादमूलमें बैठकर अपने दोषोंकी आलोचना करते हैं, और उनसे आत्म-विद्या या आत्मज्ञानका पाठ पढते हैं । इन सब बातोंसे यह स्पष्ट है कि जैनधर्ममें गूढवादके सब आवश्यक अंग पाये जाते हैं ।
पुण्य और पाप-मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियासे आत्माके प्रदेशोंमें हलन-चलन होता है, उससे, कर्म-परमाणु आत्माकी ओर आकर्षित होते हैं । यदि क्रिया शुभ होती है, तो पुण्यकर्मको ल और यदि अशुभ हो तो पापकर्मको । किन्तु पुण्य हो या पाप, दोनोंकी उपस्थिति आत्माकी परतंत्रताका कारण हैं । केवल इतना अन्तर है, कि पुण्य-कर्म सोनेकी बेडी है और पापकर्म लोहेकी । अतः स्वतंत्रताके अभिलाषी मुमुक्षु दोनोंसे ही मुक्त होनेकी चेष्टा करते हैं ।
परमात्मप्रकाशकी अपभ्रंश और आचार्य हेमचन्द्रका प्राकृत-व्याकरण अपभ्रंश और उसकी विशेषता-अपभ्रंशका आधार प्राकृत भाषा है । यह वर्तमान प्रान्तीय भाषाओंसे अधिक प्राचीन है । उपलब्ध अपभ्रंश-साहित्यके देखनेसे मालूम होता है कि जनसाधारणमें प्रचलित कविताके लिये इस भाषाको अपनाया गया था, इसीसे इसमें प्रान्तीय परिवर्तनोंके सिवा कुछ सामान्य बातें (Common Characteristics) भी पाई जाती है । हेमचन्द्रने अपनी अपभ्रंशमें प्राकृतकी कुछ विशेषताओंको भी अपवादरूपसे सम्मिलित कर लिया है । उन्होंने उदाहरणके लिये जो अपभ्रंश-पद्य उद्धृत किये हैं, एक-आध शब्द या रूपको छोडकर उनमेंसे कुछ पद्य बिल्कुल प्राकृतमें हैं । कुछ बातोंसे यह स्पष्ट है कि प्राकृतको सरल करनेके लिये अपभ्रंशमें अनेक उपाय किये गये हैं । उदाहरणके लिए, (१) अपभ्रंशमें स्वरविनिमय तथा उनके दीर्घ या ह्रस्व करनेकी स्वतंत्रता है, जैसे एक ही कारकमें 'हँ' या 'हुँ' और 'हे' या 'हु' प्रत्यय पाये जाते हैं और 'ओ' प्रत्ययकी जगहमें 'उ' आता हैं। (२) 'म' का बहत कम उच्चारण होता है, क्योंकि इसके स्थानमें प्रायः 'बँ' हो जाता हैं । (३) विभक्तिके अन्त में 'स' के स्थानमें 'ह' हो जाता है और इससे अनेक विचित्र रूप समझमें आ जाते हैं । यथा, मार्कण्डेय तथा अन्य लेखकोंके द्वारा प्रयुक्त 'देवहो' वैदिक 'देवासः' से मिलता जुलता है । इसी तरह 'देवहँ' प्राकृतके 'देवस्स'से, 'ताहँ' 'तस्स'से, 'तहि' 'तंसि' से और 'एहु' ‘एसो' से लिया गया है । अवेस्ता तथा ईरानी भाषाओंमें भी संस्कृत 'स' का 'ह' में परिवर्तन हो जाता है । वर्तमान गुजरातीमें भी कभी कभी 'स' का 'ह' हो जाता है । (४) उच्चारणको सरल बनानेके लिये प्राकृतकी सन्धियाँ प्रायः शिथिल कर दी गई हैं। (५) कभी कभी कर्ता, कर्म और सम्बन्ध कारकमें प्रत्यय नहीं लगाय जाता । (६) शब्दोंके रूपोंपर स्वरपरिवर्तनका प्रभाव पडता हैं । (७) अव्ययोंमें इतना अधिक परिवर्तन हो गया है कि उनका पहचानना भी कठिन है; उनमेंसे कुछ तो सम्भवतः देशी भाषाओंसे आये हैं । (८) अनेक शब्दोंमें 'क' 'ड' 'ल' आदि जोड दिये गये हैं। और (९) देशी शब्दों और धात्वादेशोंका भी काफी बाहुल्य हैं ।
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