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प्रस्तावनाका हिंदी सार
११५ निवेदन करते हैं कि वे परमात्माओंमें भेद-कल्पना न करें, क्योंकि उनके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है । परन्तु उपनिषदोंका एकत्व वास्तविक है, और जोइन्दुका केवल आपेक्षिक । किन्तु जब योगीन्दु आत्मा और परमात्माके एकत्वकी चर्चा करते हैं तो वे उसका पूर्णतया समर्थन करते हैं, क्योंकि जैनधर्मके अनुसार आत्मा परमात्मा है; कर्मबन्धके कारण उसे परमात्मा न कहकर आत्मा कहते हैं । सम्पूर्ण आत्माओंकी यह समानता जैनधर्मके प्राणीमात्रके प्रति मानसिक, वाचनिक और कायिक अहिंसावादके बिल्कुल अनुरूप है, इस प्रसंगमें सांख्योंकी तरह जैनोंको भी सत्कार्यवादी कहा जा सकता है । उपनिषदोंका ब्रह्म सर्वथा एक और अद्वैत है, किन्तु जैनोंके परमात्मामें यह बात नहीं है । जैनधर्म संसारको भेददृष्टिसे देखता है, और उसका आत्मा तप और ध्यानके मार्गपर चलकर परमात्मा बन जाता है, किन्तु उपनिषद् संसारको एक ब्रह्मके रूपमें ही देखते हैं।
उपनिषदोंके आत्मासे योगीन्दुके आत्माकी तुलना-जैनधर्ममें आत्मा और पुद्गल दोनों वास्तविक हैं, आत्माएँ अनन्त हैं और मुक्तावस्थामें भी प्रत्येक आत्माका स्वतन्त्र अस्तित्व रहता है । किन्तु उपनिषदोंमें आत्माके सिवा-जो कि ब्रह्मका ही नामान्तर है, कुछ भी सत्य नहीं है । जैनधर्ममें, उपनिषदोंकी तरह आत्मा
श्वव्यापी तत्त्वका अंश नहीं है किन्त उसके अन्दर परमात्मत्वके बीज वर्तमान रहते हैं और जब वह कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है, तब वह परमात्मा बन जाता है । उपनिषद् तथा गीतामें बुरे और अच्छे कार्योंको कर्म कहा है, किन्तु जैनधर्ममें यह एक प्रकारका सूक्ष्म पदार्थ (matter) है, जो आत्माकी प्रत्येक मानसिक, वाचिक और कायिक-क्रियाके साथ आत्मासे सम्बद्ध हो जाता हैं और उसे जन्म-मरणके चक्रमें घुमाता है । जैनधर्मके अनुसार आत्मा और परमात्मा एक ही हैं, क्योंकि ये एक ही वस्तुकी दो अवस्थाएँ हैं,
और इस तरह प्रत्येक आत्मा परमात्मा है । तथा संसार अनादि है, और अगणित आत्माओंकी रंगभूमि है । किन्तु वेदान्तमें आत्मा, परमात्मा और विश्व एक ब्रह्मस्वरूप ही है । __दो विभिन्न सिद्धान्त-आत्मा और ब्रह्मके सिद्धान्तको मिलाकर उपनिषद् एक स्वतन्त्र अद्वैतवादकी सृष्टि करते हैं । वास्तवमें आत्मवाद और ब्रह्मवाद ये दोनों ही स्वतंत्र सिद्धान्त हैं और एकसे दूसरेका विकास नहीं हो सकता । प्रथम सिद्धान्तके अनुसार अगणित आत्माएँ संसारमें भ्रमण कर रहे हैं; जब कोई आत्मा बन्धनसे मुक्त हो जाता है तब वह परमात्मा बन जाता है । परमात्मा भी अगणित हैं, किन्तु उनके गुणोंमें कोई अन्तर नहीं है; अतः वे एक प्रकारकी एकताका प्रतिनिधित्व करते हैं । ये परमात्मा संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और लयमें कोई भाग नहीं लेते । इसके विपरीत, ब्रह्मवादके अनुसार प्रत्येक वस्तु ब्रह्मसे ही उत्पन्न होती है, और उसीमें लय हो जाती है। विभिन्न आत्माएँ एक परब्रह्मके ही अंश हैं । जैन और सांख्य मुख्यतया आत्मवादके सिद्धान्तको मानते हैं, जब कि वैदिक-धर्म ब्रह्मवादको । किन्तु, उपनिषद् इन दोनों सिद्धान्तोंको मिला देते हैं,
और आत्मा और ब्रह्मके ऐक्यका समर्थन करते हैं। ___ संसार और मोक्ष-संसार और मोक्ष आत्माकी दो अवस्थाएँ हैं, और दोनों एक दूसरेसे बिल्कुल विरुद्ध हैं । संसार जन्म और मृत्युका प्रतिनिधि है, तो मोक्ष उनका विरोधी । संसार-दशामें आत्मा कर्मोंके चंगुलमें फँसा रहता है, और नरक, पशु, मनुष्य और देव इन चारों गतियोंमें घूमता फिरता है, किन्तु मोक्ष उससे विपरीत है, उसे पञ्चमगति भी कहते हैं । जब आत्मा चौदह गुणस्थानोंमेंसे होकर समस्त कर्मोंको नष्ट कर देता है, तब उसे पञ्चमगतिकी प्राप्ति होती है । संसार-दशामें कर्म आत्माकी शक्तिको प्रकट नहीं होने देते । किन्तु मुक्तावस्थामें, जहाँ आत्मा परमात्मा बन जाता है, और अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यका धारक होता है, वे शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। ___ मोक्षप्राप्तिके उपाय-व्यवहारनयसे सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, ये तीनों मिलकर मोक्षके मार्ग हैं, इन्हें 'रत्नत्रय' भी कहते हैं; और निश्चयनयसे रत्नत्रयात्मक आत्मा ही मोक्षका कारण है, क्योंकि ये तीनों ही आत्माके स्वाभाविक गुण हैं |
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