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परमात्मप्रकाश
समाधिशतकके मन्तव्योंको प्रचलित भाषा और जनसाधारणकी शैलीमें निबद्ध किया था । योगीन्दुकी इस रचनाने काफी ख्याति प्राप्त की है, और जयसेन, श्रुतसागर और रत्नकीर्ति सरीखे टीकाकारोंने उससे पद्य उद्धृत किये थे ।
देवसेनके तत्वसार और परमात्मप्रकाशमें भी काफी समानता है । देवसेनके ग्रन्थोंपर अपभ्रंशका प्रभाव है; अपने भावसंग्रहमें उन्होंने कुछ अपभ्रंश पद्य भी दिये हैं, और 'बहिरप्पा' ऐसे शब्दोंका प्रयोग किया है । इन कारणोंसे मेरा मत है कि देवसेनने योगीन्दुका अनुसरण किया है ।
योगीन्दु, काह और सरह - काण्ह और सरह बौद्ध - गूढवादी थे । उनके ग्रन्थ उत्तरकालीन महायान सम्प्रदायसे, खासकर तंत्रवादसे सम्बन्ध रखते हैं, और शैव योगियोंके साथ उनकी कुछ परम्पराएँ मिलतीजुलती हैं । काहका समय डा० शाहीदुल्ला ई० ७०० के लगभग और डा० एस० के० चटर्जी ईसाकी बारहवीं शताब्दीका अन्त बतलाते हैं । सरह ई० १००० के लगभग विद्यमान थे। इन दोनों ग्रन्थकारोंके दोहाकोशोंका विषय परमात्मप्रकाशके जैसा ही है । यद्यपि उनके ग्रन्थोंका नाम 'दोहा-कोश' है, किन्तु परमात्मप्रकाशकी तरह उनमें केवल दोहा ही नहीं हैं, बल्कि अनेक छन्द हैं । प्रान्त-भेदके कारण उत्पन्न कुछ विशेषताओंको छोड़कर उनकी अपभ्रंश भी योगीन्दुके जैसी ही है । गूढवादियोंके विचार और शब्द प्रायः समान होते हैं, जो विभिन्न धर्मोके गूढवादके ग्रन्थोंमें देखनेको मिलते हैं । काण्ह और सरहने अपने पद्योंमें प्रायः अपने नाम दिये हैं पर योगीन्दुने ऐसा नहीं किया । तुकाराम आदि महाराष्ट्रके संतोंने भी अपनी रचनाओंमें अपने नाम दिये हैं। और कर्नाटकके शैव वचनकारोंने अपनी मुद्रिकाओंका उल्लेख किया है । उदाहरणके लिये 'बसवण्ण' की मुद्रिका 'कूडलसंगम - देव' है, और गङ्गम्माकी 'गङ्गेश्वरलिङ्ग' । विशेषकर सरहके दोहा-कोशके बहुतसे विचार, वाक्यांश, तथा कहनेकी शैलियाँ परमात्मप्रकाशके जैसी ही हैं ।
परमात्मप्रकाशके दार्शनिक मन्तव्य और गूढवाद
व्यवहार और निश्चय - भारतीय - साहित्य के इतिहासमें यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि ग्रन्थका शुद्ध अर्थ करनेमें प्रायः टीकाकार प्रमाण माने जाते हैं । ऋग्देवके व्याख्याकार सायनके सम्बन्धमें जो बात सत्य है, परमात्मप्रकाशके टीकाकार ब्रह्मदेवके संबंध में वह बात और भी अधिक सत्य है । ग्रन्थकी व्याख्या करते हुए, ब्रह्मदेवने बार बार निश्चयनय और व्यवहारनयका अवलम्बन लिया है। यह बहुत संभव है कि उन्होंने कुछ अत्युक्ति की हो, किन्तु ग्रन्थके कुछ स्थलोंसे स्पष्ट है कि ये दोनों दृष्टियाँ जोइन्दुको भी इष्ट थीं । अतः परमात्मप्रकाशका अध्ययन करते समय हम इन दोनों नयोंकी उपेक्षा नहीं कर सकते ।
इस प्रकारके नयोंकी आवश्यकता - भारतवर्षमें एक ओर धर्म शब्दका अर्थ होता है-कठोर संयमके धारी महात्माओंके आध्यात्मिक अनुभव, और दूसरी ओर उन आध्यात्मिक सिद्धान्तोंके अनुयायी समाजका पथ-प्रदर्शन करनेवाले व्यावहारिक नियम । अर्थात् धर्मके दो रूप हैं एक सैद्धान्तिक या आध्यात्मिक और दूसरा व्यावहारिक या सामाजिक | इन दो रूपोंके कारण ही इस प्रकारके नयोंकी आवश्यकता होती है; और जैनधर्ममें तो - जहाँ भेदविज्ञानके बिना सत्यकी प्राप्ति ही नहीं होती - वे अपना खास स्थान रखते हैं । व्यवहारनय वाचाल है और उसका विषय है कोरा तर्कवाद, जब कि निश्चयनय मूक है, और उसका विषय है। अन्तरात्मासे स्वयं उद्भूत होनेवाले अनुभव । जैनधर्मानुसार गृहस्थधर्म और मुनिधर्म परस्परमें एक दूसरेके आश्रित हैं, और मोक्षप्राप्तिमें एक दूसरेकी सहायता करते हैं । यही दशा व्यवहार और निश्चयकी हैं; जैसे प्रत्येक गृहस्थ संन्यास लेता है, और अपने आत्मिक लक्ष्यको पहचानता है, उसी तरह व्यवहारनय निश्चयकी प्राप्ति के लिये आत्मसमर्पण कर देता है ।
अन्य शास्त्रोंमें इस प्रकारकी दृष्टियाँ - मुण्डकोपनिषद् (१, ४-५ ) में विद्याके दो भेद किये हैं- अपरा और परा । पहलीका विषय वेदज्ञान है, और दूसरीका शाश्वत ब्रह्मज्ञान । ये भेद सत्यके तार्किक और आनुभविक
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