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प्रस्तावनाका हिंदी सार
११३ ज्ञानके जैसे ही हैं, अतः इनकी व्यवहार और निश्चयके साथ तुलना की जा सकती है । बौद्धधर्ममें भी सत्यके दो भेद किये हैं-संवतिसत्य या व्यवहारसत्य और परमार्थसत्य । शङ्कराचार्य भी व्यवह
सातसत्य या व्यवहारसत्य और परमार्थसत्य । शङ्कराचार्य भी व्यवहार और परमार्थ दृष्टियोंको अपनाते हैं । धर्मकी कुछ आधुनिक परिभाषाओंमें भी इस प्रकारके भेदकी झलक पाई जाती हैं, जिनमेंसे विलियम जेम्स 'सामाजिक और व्यक्तिगत' इन दो दृष्टियोंको मानते हैं।
नयोंका सापेक्ष महत्व-व्यवहारनय तभी तक लाभदायक और आवश्यक है जब तक वह निश्चयकी ओर ले जाता है। अकेला व्यवहार अपूर्ण है, और कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता । बिल्लीकी उपमा तभी तक काम दे सकती है, जब तक हमने शेरको नहीं देखा । दोनों नयोंका सापेक्ष महत्व बतलाते हए अमृतचन्द्र लिखते हैं-व्यवहार उन्हींके लिये उपयोगी हो सकता है जो आध्यात्मिक-जीवनकी पहली सीढीपर रेंग रहे हैं । किन्तु, जो अपने लक्ष्यको जानते हैं और अपने चैतन्य-स्वरूपका अनुभवन करते हैं, उनके लिये व्यवहार बिलकुल उपयोगी नहीं है। ____ आत्माके तीन भेद-आत्माके तीन भेद हैं, बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । शरीरको आत्मा समझना अज्ञानता है, अतः एक ज्ञानी मनुष्यका कर्तव्य है कि वह अपनेको शरीरसे भिन्न और ज्ञानमय जाने, और इस तरह आत्मध्यानमें लीन होकर परमात्माको पहचाने | समस्त बाहिरी वस्तुओंका त्याग करने पर अन्तरात्मा ही परमात्मा हो जाता हैं। ___ आत्माके भेद और प्राचीन ग्रन्थकार-सबसे पहले योगीन्दुने ही इन भेदोंका उल्लेख नहीं किया है । किन्तु उससे पहले कुन्दकुन्दने (ईस्वी सन् का प्रारम्भ) अपने मोक्खपाहुडमें और पूज्यपादने (ईसाकी पाँचवीं शताब्दीके अन्तिम पादके लगभग) समाधिशतकमें इनकी चर्चा की है । जोइन्दुके बाद अमृतचन्द्र, गुणभद्र, अमितगति आदि अनेक ग्रन्थकारोंने आत्माकी चर्चा करते समय इस भेदको दृष्टिमें रक्खा है।
अन्य दर्शनोंमें इस भेदकी प्रतिध्वनि-यद्यपि प्राथमिक वैदिक साहित्यमें आत्मवादके दर्शन नहीं होते किन्तु उपनिषदोंमें इसकी विस्तृत चर्चा पाई जाती है । उस समय यजन-याजन आदि वैदिक कृत्यमें संलग्न पुरोहितोंके सिवा साधुओंका भी एक सम्प्रदाय था, जो अपने जीवनका बहुभाग इस आत्मविद्याके चिन्तनमें ही व्यतीत करता था । उपनिषदों तथा बादके साहित्यमें इस आत्मविद्याके प्रति बडा अनुराग दर्शाया गया । तैत्तिरीयोपनिषद्म पाँच आवरण बतलाये हैं-अन्नरसमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय । इनमेंसे प्रत्येकको आत्मा कहा है । कठोपनिषदें आत्माके तीन भेद किये हैं-ज्ञानात्मा, महदात्मा और शान्तात्मा । छान्दोग्य ३०८, ७-१२ को दृष्टिमें रखकर डॉयसन (Deusson) ने आत्माकी तीन अवस्थाएँ बतलाई हैं-शरीरात्मा, जीवात्मा और परमात्मा । अनेक स्थलोंपर उपनिषदोंमें आत्मा और शरीरको जुदा जुदा बतलाया है । न्याय-वैशेषिकका जीवात्मा और परमात्माका भेद तो प्रसिद्ध ही है । इसके बाद, रामदास आत्माके चार भेद करते हैं-१ जीवात्मा, जो शरीरसे बद्ध हैं, २ शिवात्मा, जो विश्वव्यापी है, ३ परमात्मा जो विश्वके और उससे बाहर भी व्याप्त है, और ४ निर्मलात्मा, जो निष्क्रिय और ज्ञानमय है । किन्तु रामदासका कहना है कि अन्ततोगत्वा ये सब सर्वथा एक ही हैं।
आत्मिक-विज्ञान-आत्मज्ञानसे संसार भ्रमणका अन्त होता है । आत्मा उसी समय आत्मा कहा जाता है, जब वह कर्मोंसे मुक्त हो जाता है | शुद्ध आत्माका ध्यान करनेसे मुक्ति शीघ्र मिलती है । आत्मज्ञानके बिना शास्त्रोंका अध्ययन, आचारका पालन आदि सब कृत्य-कर्म बेकार हैं । ___ आत्माका स्वभाव-यद्यपि आत्मा शरीरमें निवास करता है, किन्तु शरीरसे बिल्कुल जुदा है । छः द्रव्योंमें केवल यही एक चेतन द्रव्य है, शेष जड हैं । यह अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्दका भण्डार है, अनादि-और अनन्त है; दर्शन और ज्ञान उसके मुख्य गुण हैं; शरीरप्रमाण है । मुक्तावस्थामें उसे शून्य भी कह सकते हैं,
१ समयसार गाथा १२ समयसार कलश ।
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