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________________ प्रस्तावनाका हिंदी सार १११ शान्त, शिव, बुद्ध आदि संज्ञाएँ देते हैं । इसके सिवा अपना काम चलानेके लिये वे अजैन शब्दावलीका भी प्रयोग करते हैं । १ अ० २२ दो० में वे धारणा, यन्त्र, मन्त्र, मण्डल, मुद्रा आदि शब्दोंका उपयोग करते हैं और कहते है रमात्मा इन सबसे अगोचर हैं। अ० १.४१ तथा अ० २.१०७ में उनकी शैली वेदान्तसे अधिकतर मिलती हैं । अ० २,४६*१ जिसे ब्रह्मदेव तथा अन्य प्रतियाँ प्रक्षेपक बतलाते हैं, गीताके दूसरे अध्यायके ६९ वें श्लोकका स्मरण कराते हैं । अ० २, १७० वें दोहेमें 'हंसाचार' शब्द आता है और ब्रह्मदेव 'हंस' शब्दका अर्थ परमात्मा करते हैं । यह हमें उपनिषदोंके उन अंशोंका स्मरण कराता हैं, जिनमें आत्मा और परमात्माके अर्थमें हंस शब्दका प्रयोग किया है । सारांश यह है कि ग्रंथके कुछ भागको छोडकर-जिसमें जैन अध्यात्मका पारिभाषिक वर्णन किया है-शेष भागको अध्यात्म-शास्त्रका प्रत्येक विद्यार्थी प्रेमपूर्वक पढ सकता है। जैन-साहित्यमें योगीन्दुका स्थान-एक गूढवादीके लिये यह आवश्यक नहीं कि वह बहुत बडा विद्वान हो, और न वर्षोंतक व्याकरण और न्यायमें सिर खपाकर वह सुयोग्य लेखक बननेका ही प्रयत्न करता है, किन्तु मानव-समाजको दुःखी देख, आत्मसाक्षात्कारका अनुभव ही उसे उपदेश देनेके लिये प्रेरित करता है, और व्याकरण आदिके नियमोंका विशेष विचार किये बिना जनताके सामने वह अपने अनुभव रखता है । अतः उच्चकोटिकी रचनाओंमें प्रयुक्त की जानेवाली संस्कृत तथा प्राकृत भाषाको छोडकर योगीन्दुका उस समयकी प्रचलित भाषा अपभ्रंशको अपनाना महत्त्वसे खाली नहीं है । महाराष्ट्रके ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम और रामदासने मराठीमें और कर्नाटकके बसवन्न तथा अन्य वीरशैव २वचनकारोंने कन्नडमें बडे अभिमानके साथ अपने अनुभव लिखे हैं, जिससे अधिक लोग उनके अनुभवोंसे लाभ उठा सकें। प्राचीन ग्रन्थकारोंने जो कुछ संस्कृत और प्राकृतमें लिखा था उसे ही योगीन्दुने बहुत सरल तरीकेसे अपने समयकी प्रचलित भाषामें गूंथ दिया है । प्राचीन जैन साहित्यके अपने अध्ययनके आधारपर मेरा मत है कि योगीन्दु, कुन्दकुन्द और पूज्यपादके ऋणी हैं । योगीन्दुकृत तीन आत्माओंका वर्णन (अ० १, १२१-४) मोक्खपाहुड (४-८) से बिलकुल मिलता है । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी परिभाषाएँ भी (अ० १, ७६-७७) साधारणतया कुन्दकुन्दके मोक्खपाहुड (१४-५) में दत्त परिभाषाओं जैसी ही हैं, और ब्रह्मदेवने इन दोहोंकी टीकामें उन गाथाओंको उद्धृत भी किया है । इसके सिवा नीचे लिखी समानता भी ध्यान देने योग्य है-मो० पा० २४ और प० प्र० अ० १,८६, मो० पा० ३७ और प० प्र० अ० २, १३; मो० पा० ५१ और प० प्र० अ० २, १७६-७७; मो० पा० ६६६९ और प० प्र० अ० २, ८१ आदि | मोक्खपाहुड आदिकी संस्कृतटीकामें श्रुतसागरसूरिका परमात्मप्रकाशसे दोहे उद्धृत करना भी निरर्थक नहीं हैं । इस प्रकार सूक्ष्म छानबीनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि योगीन्दुने कुन्दकुन्दसे बहुत कुछ लिया है। - पूज्यपादके समाधिशतक और परमात्मप्रकाशमें भी घनिष्ठ समानता है । मेरे विचारसे योगीन्दुने पूज्यपादका अक्षरशः अनुसरण किया है । विस्तारके डरसे यहाँ कुछ समानताओंका उल्लेखमात्र करता हूँ। स० श० ४-५ और प० प्र० १, ११-१४; स० श० ३१ और प० प्र० २, १७५, १. १२३*२, स. श० ६४-६६ और प० प्र० २, १७८-८०; स० श० ७० और प० प्र० १, ८०; स० श० ७८ और प० प्र० २,४६*१; स० श० ८७-८८ और प० प्र० १, ८२ आदि । इन समानताओंके सिवा इन दोनोंमें विचारसाम्य भी बहुत है किन्तु दोनोंकी शैलीमें बडा अन्तर है। वैयाकरण होनेके कारण 'अर्द्धमात्रालाघवं पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः' के अनुसार पूज्यपादके उद्गार संक्षिप्त, भाषा परिमार्जित और भाव व्यवस्थित हैं, किन्तु योगीन्दुकी कृति-जैसा कि पहले कहा जा चुका है-पुनरावृत्ति और इधर उधरकी बातोंसे भरी है । पूज्यपादकी शैलीने उनकी कृतिको गहन बना दिया था, और विद्वान लोग ही उससे लाभ उठा सकते थे, संभवतः इसीलिये योगीन्दुने १. माझी मराठी भाषा चोखडी । परब्रह्मीं फलली गाढी ।। २. ये वचन कन्नड गद्यके सुन्दर नमूने हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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