________________
११०
परमात्मप्रकाश अपभ्रंश दोहे हैं । परमात्मप्रकाशमें कहीं भी 'दोहा' शब्द नहीं आया, किन्तु योगीन्दुके दूसरे ग्रन्थ योगसारमें दो बार आया है । दोहेकी दोनों पंक्तियाँ बराबर होती हैं। प्रत्येक पंक्तिमें दो चरण होते हैं । प्रथम चरणमें १३
और दूसरेमें ११ मात्राएँ होती हैं । किन्तु जब हम दोहेको पढ़ते हैं या उसे गानेकी कोशिश करते हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि हमें १४. मात्राओंकी आवश्यकता है-प्रत्येक चरणकी अन्तिम मात्रा कुछ जोरसे बोली जाती है । अतः यह कहना उपयुक्त होगा कि दोहेकी प्रत्येक पंक्तिमें चौदह और बारह मात्राएँ होती हैं किन्तु परमात्मप्रकाशके इकतीस दोहोंमें प्रत्येक पंक्तिके प्रथम चरणमें अन्तिम वर्णका गुरु उच्चारण करनेपर भी तेरह मात्राएँ ही होती हैं । दोहेकी प्रत्येक पंक्तिमें चौदह और बारह मात्राएँ होती हैं, यह बात विरहाङ्ककी निम्नलिखित परिभाषासे भी स्पष्ट है । तिणि तरंगा णेउरओ वि-प्पाइक्का कण्णु । दुवहअ-पच्छद्धे वि तह वद लक्खणउ ण अण्णु ॥ ४, २७ ॥
तुरंग-४ मात्राएँ, णेउर-१ गुरु, पाइक्क-४ मात्रा और कण्ण=२ गुरु, इस प्रकार एक पंक्तिमें १४ और १२ मात्राएँ होती हैं । अपभ्रंशमें 'ए' और 'ओ' प्रायः ह्रस्व भी होते हैं, अतः उक्त दोहेके अक्षरशः विभाजन करनेसे प्रकट होता है कि १३ और ११ मात्राएँ होती हैं । कविदर्पण, प्राकृतपिंगल, छन्दकोश आदि छन्दशास्त्र बतलाते हैं कि दोहेकी प्रत्येक पंक्तिमें १३ और ११ मात्राएँ होती हैं, किन्तु हेमचन्द्र १४ और १२ ही बताते हैं । सारांश यह है कि विरहाङ्क और हेमचन्द्र दोहाके श्रुतिमाधुर्यका विशेष ध्यान रखते हैं, जब कि अन्य छन्दशास्त्रज्ञ अक्षर गणनाके नियमका पालन आवश्यक समझते हैं । विरहाङ्कने दोहेका लक्षण अपभ्रंश-भाषामें रचा हैं, और रुद्रट कवि संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषाके श्लेषोंको दोहाछन्दमें लिखते हैं, इससे प्रमाणित होता है कि दोहा अपभ्रंश भाषाका छन्द है ।
यहाँ 'दोहा' शब्दकी व्युत्पत्तिके सम्बन्धमें विचार करना अनुपयुक्त न होगा । जोइन्दु इसे दोहा कहते हैं किन्तु विरहांक इसका नाम 'दुवहा' लिखते हैं । यदि दोहाका मूल संस्कृत है तो यह 'द्विधा' शब्दसे बना है, जो बतलाता है कि दोहाकी प्रत्येक पंक्ति दो भागोंमें बँटी होती है, या दोहाछन्दमें एक ही पंक्ति दो बार आती है। विरहांकका 'दो पाआ भण्णइ दुवहउ' लिखना बतलाता है कि उसे दूसरा अर्थ अभीष्ट है । जहाँतक हम जानते हैं विरहाङ्क जिसे प्रो० एच० डी. वेलणकर ईसाकी नवमी शताब्दीसे पहलेका बतलाते हैं-दोहेकी परिभाषा करनेवालोंमें सबसे प्राचीन छन्दकार है । बादके छन्दकारोंने दोहेके भेद भी किये हैं । ___ आध्यात्मिक सहिष्णुता-अध्यात्मवादियोंमें एक दूसरेके प्रति काफी सहिष्णुता होती है, और इसलिये-जैसा कि प्रो० २रानडेका कहना है-सब युगों और सब देशोंके अध्यात्मवादी एक अनन्त और स्वर्गीय समाजकी सृष्टि करते हैं । वे किसी भी दार्शनिक आधारपर अपने गूढवादका निर्माण कर सकते हैं, किन्तु शब्दोंके अन्तस्तलमें घुसकर वे सत्यकी एकताका अनुभव करते हैं । योगीन्दु एक जैन गूढवादी हैं, किन्तु उनकी विशालदृष्टिने उनके ग्रन्थमें एक विशालता ला दी है, और इसलिये उनके अधिकांश वर्णन साम्प्रदायिकतासे अलिप्त हैं । उनमें बौद्धिक सहनशीलता भी कम नहीं हैं । वेदान्तियोंका मत है कि आत्मा सर्वगत है, मीमांसकोंका कहना है कि मुक्तावस्थामें ज्ञान नहीं रहता; जैन उसे शरीरप्रमाण बतलाते हैं, और बौद्ध कहते हैं कि वह शुन्यके सिवा कुछ भी नहीं । किन्तु योगीन्दु इस मतभेदसे बिल्कुल नहीं घबराते । वे जैन अध्यात्मके प्रकाशमें नयोंकी सहायतासे शाब्दिक-जालका भेदन करके सब मतोंके वास्तविक अभिप्रायको समझाते हैं । यद्यपि अन्य दर्शनकार उनकी इस व्याख्याको स्वीकार न कर सकेंगे, फिर भी यह शैली एक शान्त अध्यात्मवादीके रूपमें उन्हें हमारे सामने खडा कर देती है । योगीन्दु परमात्माकी एक निश्चित रूपरेखा स्वीकार करते हैं किन्तु उसे एक निश्चित नामसे पुकारनेपर जोर नहीं देते । वे अपने परमात्माको जिन, ब्रह्म,
१. एच. डी. वेलणकर-'विरहांकका वृत्तजाति समुच्चय' २. वेलणकर और रानडे, भारतीयदर्शन का इतिहास जिल्द ७, महाराष्ट्रका आध्यात्मिक गूढवाद, भूमिका पृष्ठ २ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org