________________
प्रस्तावनाका हिंदी सार
१०९ करना बतलाते हैं, कि वे योगीन्दुके एक शिष्य थे, और साधु थे, उनका प्रसिद्ध पूर्वमीमांसक प्रभाकर भट्ट (लगभग ६०० ई.) के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । योगीन्दु और प्रभाकरके नामके सिवा ग्रन्थमें किन्हीं आर्य शान्तिके 'मतका भी उल्लेख है । निःसन्देह इनसे पहले कोई शान्ति नामके ग्रन्थकार हुए होंगे, किन्तु विशेष प्रमाणोंके अभावमें हम उन ज्ञात ग्रन्थकारोंके साथ इनकी एकता नहीं ठहरा सकते, जिनके नामके प्रारम्भमें 'शान्ति' शब्द आता है।
ग्रन्थ-रचनाका उद्देश और उसमें सफलता-जैसा कि ग्रन्थमें उल्लेख है, प्रभाकर शिकायत करता है कि उसने संसारमें बहुत दुःख भोगे हैं; अतः वह उस प्रकाशकी खोजमें है, जो उसे अज्ञानान्धकारसे मुक्त कर सके । इसलिये सबसे पहले योगीन्दु आत्माका वर्णन करते हैं, आत्म-साक्षात्कारकी आवश्यकता बतलाते हैं, और कुछ गूढ आत्मिक अनुभवोंकी चर्चा करते हैं । इसके बाद वे मुक्तिका स्वरूप, उसका फल, और उसके उपाय समझाते हैं । मुक्तिके उपायोंका वर्णन करते हुए वे नीति और अनुशासन सम्बन्धी बहुत-सी शिक्षाएँ देते हैं । भट्ट प्रभाकरको जिस प्रकाशकी आवश्यकता थी, बहुतसी आत्माएँ उस प्रकाशकी प्राप्तिके लिये उत्सुक हैं, और जैसा कि ग्रन्थका नाम तथा विषय बतलाते हैं, सचमुच यह ग्रन्थ परमात्माकी समस्यापर बहुत सरल तरीकेसे प्रकाश डालता है।
विषय-वर्णनकी शैली-जैसा कि ब्रह्मदेवके मूलसे मालूम होता है, स्वयं ग्रन्थकारने ही प्रभाकर भट्टके दो प्रश्नोंके आधारपर ग्रन्थको दो अधिकारोंमें विभक्त किया था । दूसरे भागकी अपेक्षा पहला भाग अधिक क्रमबद्ध है । कहीं कहीं ग्रन्थकारने स्वयं प्रश्न उठाकर उनका भिन्न-भिन्न दृष्टियोंसे समाधान किया है । इस ग्रन्थमें शाब्दिक पुनरावृत्तिकी कमी नहीं है, किन्तु इस पुनरावृत्तिसे ग्रन्थकार अनजान न था, क्योंकि वह स्वयं कहता है कि भट्ट प्रभाकरको समझानेके लिये अनेक बातें बार-बार कही गई हैं । आध्यात्मिक ग्रन्थोंमें किसी बातको बार बार कहनेका विशेष प्रयोजन होता है, वहाँ न्यायशास्त्रके समान युक्तियोंका कोटिक्रम और उसके द्वारा सिद्धान्त-निर्णय अपेक्षित नहीं रहता । वहाँ ग्रन्थकारके पास नैतिक और आध्यात्मिक विचारोंकी पूँजी
है. और उसके प्रति पाठकोंको रुचि उत्पन्न करना उसका मख्य उद्देश होता है. अतः अपने कथनको प्रभावक बनानेके लिये वह एक बातको कुछ हेर-फेरके साथ दोहराता और उपमाओंसे स्पष्ट करता हैं । ब्रह्मदेवने भी “अत्र भावनाग्रन्थे समाधिशतकवत् पुनरुक्तदूषणं नास्ति' आदि लिखकर पुनरुक्तिका समर्थन किया है।
उपमाएँ और उनका उपयोग-अपने उपदेशको रोचक बनानेके लिये एक धर्मोपदेष्टा उपमा रूपक आदिका उपयोग करता है । यदि वे (उपमा रूपक आदि) दैनिक व्यवहारकी वस्तुओंसे लिये गये हों तो पाठकों और श्रोताओंको प्रकृत विषयके समझनेमें बहुत सुगमता रहती है | यही कारण है कि भारतीय न्यायशास्त्रमें दृष्टान्तको इतना महत्व दिया गया है । विषयकी गूढताके कारण एक धर्मोपदेष्टा या तार्किककी अपेक्षा एक गूढवादीको इन सब चीजोंका उपयोग करना विशेष आवश्यक होता है । दृष्टान्त आदिकी सहायतासे वह अपने अनुभवोंको पाठकों तथा श्रोताओं तक पहुँचानेमें समर्थ होता है । गूढवादीकी वर्णनशैलीमें अन्य शैलियोंसे अन्तर होनेका यह अभिप्राय नहीं है कि उसके अनुभव अप्रामाणिक हैं, किन्तु इससे यही प्रमाणित होता है कि वे अनुभव शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किये जा सकते । अतः गूढवादके ग्रन्थ उपमा रूपक आदिसे भरे होते हैं । 'योगीन्दु' भी इसके अपवाद नहीं है, उनके परमात्मप्रकाशमें दृष्टान्तोंकी कमी नहीं है । उनमेंसे कुछ तो बडे ही प्रभावक हैं।
परमात्मप्रकाशके छन्द-ब्रह्मदेवके मूलके अनुसार परमात्मप्रकाशमें सब ३४५ पद्य हैं, उनमें ५ गाथाएँ, एक स्रग्धरा और एक मालिनी है किन्तु इनकी भाषा अपभ्रंश नहीं है । तथा एक चतुष्पादिका और शेष ३३७
१-देखो २, ६१ । २-देखो २, २११ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org