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________________ १०८ परमात्मप्रकाश त, क', और 'म' प्रतियाँ-इन प्रतियोंमें ब्रह्मदेवके मूलसे (प्रक्षेपकसहित) ११२ और बालचन्द्रके मूलसे ११८ पद्य कम हैं । मुझे ऐसा मालूम होता है कि इन प्रतियोंके पीछे कोई मौलिक आधार अवश्य हैं, क्योंकि एक तो 'क' प्रतिकी कन्नडटीका ब्रह्मदेवकी टीकासे स्वतन्त्र है, और संभवतः उससे प्राचीन भी है । दूसरे, इसमें ब्रह्मदेवका एक भी क्षेपक नहीं पाया जाता । तीसरे, इसमें ब्रह्मदेव और बालचन्द्रसे दो गाथायें अधिक हैं । चौथे, ब्रह्मदेवने अधिकार २, १४३ में 'जिणु सामिउ सम्मत्तु' पाठ रक्खा है तथा टीकामें दूसरे पाठान्तर 'सिवसंगम सम्मत्त'का उल्लेख किया है । उनका दूसरा पाठान्तर 'सिवसंगमु सम्मत्तु' इन प्रतिओंके 'सिउ संगउ सम्मत्तु' पाठसे मिलता है । किन्तु इन प्रतियोंमें अविद्यमान दोहोंका विचार करनेसे यही नतीजा निकलता है कि ये प्रतियाँ परमात्मप्रकाशका संक्षिप्त रूप हैं । यह भी कहा जा सकता है कि इन प्रतियोंका मूल ही परमात्मप्रकाशका वास्तविक मूल है, जिसे योगीन्दुके किसी शिष्य, संभवतः स्वयं भट्ट प्रभाकरने ही यह बतानेके लिए कि गुरुने उसे यह उपदेश दिया था, वह बढा दिया है । यद्यपि यह कल्पना आकर्षक है किन्तु इसका समर्थन करनेके लिए प्रमाण नहीं है । इन प्रतियोंका आधार दक्षिण कर्नाटककी एक प्राचीन प्रति है, अतः इस कल्पनाका यह मतलब हो सकता है कि योगीन्दु दक्षिणी थे, और मूलग्रन्थ उत्तर भारतमें विस्तृत किया गया, क्योंकि ब्रह्मदेव उत्तर प्रान्तके वासी थे । किन्तु योगीन्दुको दक्षिणी सिद्ध करनेके लिए कोई भी प्रमाण नहीं है । पर इतना निश्चित है कि परमात्मप्रकाशको 'त' 'क' और 'म' प्रतिके रूपमें संक्षिप्त करनेके लिये कोई कारण अवश्य रहा होगा । संभवतः दक्षिण भारतमें जहाँ शंकराचार्य, रामानुज आदिके समयमें जैनोंको वेदान्त और शैवोंके विरुद्ध वाद-विवाद करना पडता था, किसी कन्नडटीकाकारके द्वारा यह संक्षिप्त रूप किया गया है । जोइन्दुके मूलपर मेरा मत-उपलब्ध प्रतियोंके आधारपर यह निर्णय कर सकना असंभव है कि जोइन्दुकृत परमात्मप्रकाशका शुद्ध मूल कितना है ? किन्तु दोहोंकी संख्यापर दृष्टि डालनेसे यह जान पडता है कि ब्रह्मदेवका मूल ही जोइन्दुके मूलके अधिक निकट है । संक्षेपमें परमात्मप्रकाशका विषय-परिचय सारांश-प्रारम्भके सात दोहोंमें पंचपरमेष्ठीको नमस्कार किया गया है । फिर तीन दोहोंमें ग्रन्थकी उत्थानिका है । पाँचमें बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका स्वरूप बताया गया है । इसके बाद दस दोहोंमें विकलपरमात्माका स्वरूप आता है । पाँच क्षेपको सहित चौबीस दोहोंमें सकलपरमात्माका वर्णन है । ६ दोहोंमें जीवके स्वशरीर-प्रमाणकी चर्चा हैं । फिर द्रव्य, गुण, पर्याय, कर्म, निश्चयसम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्व आदिकी चर्चा है । दूसरे अधिकारमें, प्रारम्भके दस दोहोंमें मोक्षका स्वरूप, एकमें मोक्षका फल, उन्नीसमें निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग, तथा आठमें अभेदरत्नत्रयका वर्णन है । इसके बाद चौदहमें समभावकी, चौदहमें पुण्य पापकी समानताकी, और इकतालीस दोहोंमें शुद्धोपयोगके स्वरूपकी चर्चा है । अन्तमें परमसमाधिका कथन है । __परमात्मप्रकाशपर समालोचनात्मक विचार रचनाकाल तथा कुछ ऐतिहासिक पुरुषोंका उल्लेख-ब्रह्मदेवके आधारपर हम इस निर्णयपर पहुँचते हैं कि प्रभाकर भट्टके कुछ प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिए योगीन्दुने परमात्मप्रकाशकी रचना की थी । एकर स्थलपर प्रभाकर भट्ट को उसके नामसे सम्बोधित किया गया है और 'वढ' जिसका अर्थ ब्रह्मदेव 'वत्स' करते हैं, तथा 'जोइय' (योगिन्) शब्दके द्वारा तो अनेकबार उनका उल्लेख आता है । प्रभाकर भट्ट योगीन्दुके शिष्य थे; इसके सिवा उनके सम्बन्धमें हम कुछ नहीं जानते । भट्ट और प्रभाकर ये दो पृथक् नाम नहीं हैं, किन्तु एक नाम है । संभवतः भट्ट एक उपाधि रही होगी; जैसे कि कन्नडव्याकरण 'शब्दानुशासन' (१६०४ ई) के रचयिता अकलंक भट्टाकलंक कहे जाते हैं । भट्ट प्रभाकरके प्रश्न और योगीन्दुका उन्हें सम्बोधित १-देखो १ अ०८ दो और २ अ० २११ दो० । २-देखो १, ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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