________________
प्रस्तावनाका हिंदी सार
१०७ उन्होंने उनकी टीका की है । ब्रह्मदेवको प्राप्त प्रति कितनी बडी थी, यह निश्चित रीतिसे नहीं बतलाया जा सकता । किन्तु यह कल्पना करना संभव है कि उसमें और भी अधिक दोहे थे, जिन्हें ब्रह्मदेव अपने दोनों प्रकारके प्रक्षेपकोंमें न मिला सके ।।
बालचन्द्रका मूल-मलधारी बालचन्द्रने परमात्मप्रकाश पर कन्नडमें एक टीका लिखी है । आरम्भमें वे कहते हैं कि मैंने ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकासे सहायता ली है । किन्तु बालचन्द्रके मूलमें ६ पद्य अधिक है । ब्रह्मदेवका अनुसरण करनेपर भी बालचन्द्रकी प्रतिमें ६ अधिक पद्य क्यों पाये जाते हैं ? इस प्रश्नके दो ही समाधान हो सकते हैं-या तो बालचन्द्रके बाद ब्रह्मदेवकी प्रतिमेंसे टीकासहित कुछ पद्य कम कर दिये गये, या । बालचन्द्रके सामने कोई अधिक पद्यवाली प्रति उपस्थित थी, जिससे उन्होंने अपनी कन्नडटीकामें ब्रह्मदेवकी संस्कृतवृत्तिका अनुसरण करनेपर भी कुछ अधिक पद्य सम्मिलित कर लिये । प्रथम समाधान तो स्वीकार करने योग्य नहीं मालूम होता, क्योंकि टीकासहित कुछ पद्योंका निकाल देना संभव प्रतीत नहीं होता । किन्तु दूसरा समाधान उचित ऊँचता है । वे ६ पद्य इस प्रकार हैं१-२ पहला और दूसरा अधिक पद्य अधिकार २, ३६ के बाद आते हैं :
कायकिलेसे पर तणु झिज्जइ विणु उवसमेण कसाउ ण खिज्जइ । ण करहि इंदियमणह णिवारणु उग्गतवो वि ण मोक्खह कारण ॥
अप्प-सहावे जासु रइ णिच्चुववासउ तासु । बारि दब्बे जासु रइ भुक्खुमारि तासु ॥ ३-यह पद्य अधिकार २, १३४ के बाद 'उक्तं च' करके लिखा हैअरे जिउ सोक्खे मग्गसि धम्मे अलसिय । पक्खे विणु केव उड्डण मग्गेसि मेंडय दंडसिय (?)॥ ४-अधिकार २, १४० के बाद यह दोहा आता हैपण्ण ण मारिय सोयरा पुणु छट्ठउ चंडालु । माण ण मारिय अप्पणउ के व छिनइ संसारु ॥ ५-अधिकार २,१५६ के बाद यह दोहा 'प्रक्षेपकम्' करके लिखा हैंअप्पह परह परंपरह परमप्पउह समाणु । परु करि परु करि परु जि करि जइ इच्छइ णिब्वाणु ॥
६-अधिकार २,२०३ के बाद, संभवतः असावधानीके कारण इसपर नम्बर नहीं डाला गया हैं, किन्तु टीका की हैअन्तु वि गंतुवि तिहुवणहँ सासयसोक्खसहाउ । तेत्यु जि सयलु वि कालु जिय णिवसइ लद्धसहाउ ॥
'त' 'क' और 'म' प्रति अन्य प्रतियोंकी अपेक्षा बहुत संक्षिप्त हैं । ब्रह्मदेवके मूलके साथ उनकी तुलना करनेपर उनमें निम्नलिखित दोहे नहीं पाये जाते
प्रथम अधिकारमें-२-११, १६, २०, २२, २८-३२, ३८, ४१, ४३, ४४, ४७, ६५, ६५*१, ६६, ७३, ८०, ८१, ९१, ९२, ९९, १००, १०४, १०६, १०८, ११०, ११८, ११९, १२१ १२३*२-३ ।
द्वितीय अधिकारमें-१, ५-६, १४-१६, ४४, ४६*१, ४९-५२, ७०, ७४, ७६, ८४, ८६-८७, ९९, १०२, १११*२-४, ११४-११६, १२८-१२९, १३४-१३७, १३७*५, १३८-१४०, १४२, १४४-१४७, १५२-. १५५, १५७१६५, १६८, १७८-१८१, १८५, १९७, २००, २०५-२१२ ।
किन्तु इन प्रतियोंमें दो दोहे अधिक हैं, जो न तो ब्रह्मदेवकी प्रतिमें पाये जाते हैं, और न बालचन्द्रकी ही प्रतिमें । कुछ संशोधनके साथ दोनों दोहे नीचे दिये जाते हैं
१-अधिकार १, ४६ के बादजो जाणइ सो जाणि जिय जो पेक्खइ सो पेक्खु । अंतुबहुंतु वि जंपु चइ होउण तुहुँ णिरवेक्खु ॥ २-अधिकार २, २१४ के बादभब्वाभब्वह जो चरणु सरिसु ण ते ण हि मोक्खु । लद्धि ज भबह रयणतय होइ अभिण्णे मोक्खु ॥
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only