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________________ १०६ परमात्मप्रकाश परमात्मप्रकाशके पहले संस्करण-सन् १९०९ ई० में देवबन्दके बाबू सूरजभानुजी वकीलने हिन्दी अनुवादके साथ इस ग्रन्थको प्रकाशित किया था, और उसका नाम रक्खा था 'श्रीपरमात्मप्रकाश प्राकृत ग्रन्थ, हिन्दी-भाषा अर्थसहित' । इस संस्करणमें मूल सावधानीसे नहीं छपाया गया था । प्रस्तावनामें प्रकाशकने लिखा भी था कि जैनमन्दिरोंसे प्राप्त अनेक प्रतियोंकी सहायता लेनेपर भी उसका शुद्ध करना कठिन था । सन् १९१५ ई० में इसका बाबू ऋषभदासजी बी० ए० वकीलका अंग्रेजी अनुवाद आरासे प्रकाशित हुआ । किन्तु यह अनुवाद सन्तोषजनक न था । सन् १९१६ ई० में रायचन्दजैनशास्त्रमाला बम्बई ने ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीका और पं० मनोहरलालजीके द्वारा आधुनिक हिन्दीमें परिवर्तित पं० दौलतरामजीकी भाषाटीकाके साथ इसे प्रकाशित किया । यद्यपि इसके मूलमें भी सुधारकी आवश्यकता थी, फिर भी यह एक अच्छा संस्करण था । ____वर्तमान संस्करण-यद्यपि रायचन्दजैनशास्त्रमालाके पूर्वोक्त संस्करणकी ही यह दूसरी आवृत्ति है, फिर भी यह संस्करण पहलेसे परिष्कृत और बडा है, और इसकी यह भूमिका तो एक नई वस्तु है । प्रकाशककी इच्छानुसार मूल, ब्रह्मदेवकी टीकावाला ही दिया गया है, किन्तु हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे मूल तथा संस्कृतटीकाका संशोधन कर लिया गया है । इसके सिवा समस्त पदोंके मध्यमें संयोजक चिह्न लगाये गये हैं, तथा अनुनासिक और अनुस्वारके अन्तरका ध्यान रक्खा गया है । संस्कृतछायामें भी कई जगह परिवर्तन किया गया है । हिन्दीटीकामें भी जहाँ तहाँ सुधार किया गया है । मूल और भाषा सम्बन्धी निर्णय-इस संस्करणमें मूल ब्रह्मदेवका ही दिया गया है अर्थात् संस्कृतटीका बताते समय ब्रह्मदेवके सामने परमात्मप्रकाशके दोहोंकी जो रूपरेखा उपस्थित थी, या जिस रूपरेखाके पारपर उन्होंने अपनी टीका रची थी, इस संस्करणमें भी उसीका अनुसरण किया गया है। किन्त हमें यह न भूलना चाहिये कि ब्रह्मदेवके मूलवाली प्रतियोंमें भी पाठ-भेद पाए जाते थे । परमात्मप्रकाशके परम्परागत पाठको जाननेके लिये भारतके विभिन्न प्रान्तोंसे मँगाई गई कोई दस प्रतियोंको मैंने देखा है और उनमेंसे चुनी हुई छः प्रतिओंके पाठांतर अन्तमें दे दिये हैं । अतः भाषासंबंधी चर्चा अनेक हस्तलिखित प्रतियोंके पाठान्तरोंके आधारपर की गई है। परमात्मप्रकाशका मूल ब्रह्मदेवका मूल-ब्रह्मदेवने परमात्मप्रकाशके दो भाग किये है । प्रथम अधिकारमें १२६, और द्वितीयमें २१९ दोहे हैं। इनमें क्षेपक भी सम्मिलित हैं । ब्रह्मदेवने क्षेपकके भी दो भाग कर दिये हैं, एक 'प्रक्षेपक' (जो मूलमें सम्मिलित कर लिया गया है) और दूसरा 'स्थलसंख्या-बाह्य-प्रक्षेपक' (जो मूलमें सम्मिलित नहीं किया गया है) उनका मूल इस प्रकार हैप्रथम अधिकार- मूल दोहे प्रक्षेपक स्थ० बा० प्र० आधा ११८ १२ द्वितीय अधिकार- मूल दोहे स्थ० बा० प्र० इससे पता चलता है कि परमात्मप्रकाशकी जो प्रति ब्रह्मदेवको मिली थी, काफी विस्तृत थी । जिन पाँच दोहोंके (अधिकार १,२८-३२) योगीन्दुरचित होनेमें उन्हें सन्देह था, उनको उन्होंने अपने क्षेपक माना है । किन्तु जिन आठ दोहोंको उन्होंने मूलमें सम्मिलित नहीं किया, संभवतः पाठकोंके लिये उपयोगी जानकर ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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