SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०५ प्रस्तावनाका हिंदी सार अंग्रेजी प्रस्तावनाका हिन्दी सार' १ परमात्मप्रकाश परमात्मप्रकाशकी प्रसिद्धि-परमप्पयासु या परमात्मप्रकाश जैनगृहस्थों तथा मुनियोंमें बहुत प्रसिद्ध है । विशेषकर साधुओंको लक्ष्य करके इसकी रचना की गई है । विषय साम्प्रदायिक न होनेसे यद्यपि समस्त जैनसाधु इसका अध्ययन करते हैं, फिर भी दिगम्बर जैनसाधुओंमें इसकी विशेष ख्याति है । इसकी लोकप्रियताके अनेक कारण हैं । प्रथम, इसका नाम ही आकर्षक है; दूसरे, पारिभाषिक शब्दोंकी भरमार न होनेके कारण इसकी वर्णनशैली कठिन नहीं है; तीसरे, लेखनशैली सरल है, और भाषा सुगम अपभ्रंश है । संसारके कष्टोंसे दुःखी भट्ट प्रभाकरमें धार्मिकरुचि पैदा करनेके लिये इसकी रचना की गई थी । संसारके दुःखोंकी समस्या भट्ट प्रभाकरके समान सभी भव्यजीवोंके सामने रहती है, अतः परमात्मप्रकाश सभी आस्तिकोंको प्रिय है । कन्नड और संस्कृतमें इसपर अनेक प्राचीन टीकाएँ हैं, वे भी इसकी लोकप्रियता प्रदर्शित करती हैं। ___मेरा योगीन्दुके साहित्यका अध्ययन-अपभ्रंश भाषाका नवीन ग्रन्थ 'दोहापाहुड' जब मुझे प्राप्त हुआ, तब मैंने उसके सम्बन्धमें२ 'अनेकान्त' में एक लेख लिखा । उपलब्ध प्रतिमें उसके कर्ताका नाम 'योगेन्द्र' लिखा था । उसपर टिप्पणी करते हुए पं० जुगलकिशोरजीने लिखा कि दोहापाहुडकी देहलीवाली प्रतिमें उसके कर्ताका नाम रामसिंह लिखा है । इसके बाद भाण्डाकर प्राच्यविद्यामन्दिर पूनासे प्रकाशित होनेवाली पत्रिकामें 'जोइन्दु और उनका अपभ्रंश साहित्य' शीर्षकसे मैंने एक लेख लिखा, उसमें मैंने जोइन्दु या योंगीन्दुके साहित्यपर कुछ प्रकाश डाला था, और उनके समयके बारेमें कुछ प्रमाण भी संकलित किये थे । इस लेखके प्रकाशनसे काफी लाभ हुआ; दो ग्रन्थ-दोहापाहड और सावयधम्मदोहा-जिनसे अपने लेखमें मैंने अनेक उद्धरण दिये थे. प्रो० हीरालालजी द्वारा हिन्दी अनवादके साथ सम्पादित होकर प्रकाशित हो गये अनुवादके साथ सम्पादित होकर प्रकाशित हो गये । तथा मेरे लेखमें उद्धृत कुछ पद्योंका मराठीमें भी अनुवाद किया गया । प्राच्य-साहित्यमें परमात्मप्रकाशका स्थान-उत्तर भारतकी भाषाओंकी, जिनमें मराठी भी सम्मिलित है, समृद्धि तथा उनके इतिहासपर अपभ्रंश भाषाका अध्ययन बहुत प्रकाश डालता है । अब तक प्रकाशमें आये हुए अपभ्रंश-साहित्यमें परमात्मप्रकाश सबसे प्राचीन है और सबसे पहले प्रकाशन भी इस आ था, किन्तु इसके प्रारम्भिक संस्करण प्राच्य विद्वानोंके हाथोंमें नहीं पहुँचे । जहाँ तक मैं जानता हूँ सबसे पहले पी० डी० गुणेने ही 'भविसयत्तकहा' की प्रस्तावनामें इसे अपभ्रंश-ग्रन्थ बतलाया था। आचार्य हेमचन्द्रने अपने प्राकतव्याकरणमें परमात्मप्रकाशसे अनेक उदाहरण दिये हैं, अतः इसे हम हेमचन्द्रके पहले की अपभ्रंश भाषाका नमूना कह सकते हैं । भाषाकी विशेषताके अतिरिक्त इस ग्रन्थमें एक और भी विशेषता है । जैन-साहित्यका पूरा ज्ञान न रहनेके कारण कुछ विद्वान जैनधर्मको केवल साधु-जीवनके नियमोंका शिक्षक कहते हैं। कुछ इसे मनोविज्ञानसे शून्य बतलाते हैं । किन्तु परमात्मप्रकाश स्पष्ट बतलाता है कि आध्यात्मिक गूढवादका जैनधर्ममें क्या स्थान है और वह कैसे मनोविज्ञानका आधार होता है । यदि हम यह याद रखें कि जैनधर्म अनेक . देवतावादी है और ईश्वरको जगत्का कर्ता नहीं मानता, तो यह निश्चित है कि जैन गूढवाद सभीको विशेष रोचक मालूम होगा। १. परमात्मप्रकाशकी अंग्रेजी प्रस्तावनाका यह अविकल अनुवाद नहीं है । किन्तु अंग्रेजी न जाननेवाले हिन्दीपाठकोंके लिये उसके मुख्य मुख्य आवश्यक अंशोंका सार दे दिया गया है । दर्शन तथा भाषाविषयक मन्तव्य विशेषतः संक्षिप्त कर दिये गये हैं । विशेष जाननेके इच्छुक अंग्रेजी प्रस्तावनासे जान सकते हैं। -अनुवादकर्ता । २. पृष्ठ ५४४-४८ और ६७२ । ३. जिल्द १२. पृ० १३२-६३ | ४. मराठी साहित्य-पत्रिका पर०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy