SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना जगतमां भलो दुर्जननो संगम थजो के जेनो विरह थवाथी बहु सुख थाय, सज्जननो समागम मा थजो के जेना विरहथी बहु दुःख थाय ! ७. विहिणो वि विचित्तई विलसियई, कज्जई संभवहिं अचिंतमई । ५.१८ विधातानी लीला विचित्र छे, अणधार्या कार्यो संभवित बने छे. ८. जो जसु चिंतइ पावु परजणह अपावह । तं तसु वलिवि पडे कलुसिउ नियपावह ॥ ५. २० जे निर्दोष परजन उपर पाप ढोळवा विचारे छे, तेना पोताना ज उपर पाप पार्छ वळीने पडे छे. ९. लोहह पंजरि पल्लिय कत्थ वि. सीह जेंव सीयंति समत्य वि । तिह पुरिसा वि हु सत्त समिद्धा, अच्छहिं दुत्तर-नेह -निबद्धा ॥ ६. ४ लाढाना पांजरामां घालेला सिंह समर्थ होवा छतां सीदाय छे, तेम सत्वशाळी पुरुषो पण दुस्तर स्नेहथी जकडायेला सीदाय छे. १० जणणी-जणया वि हु आवइए, कारणु हवइ कम्मह गइए । जणणी-जंघा वि हु वच्छयस्त, धभत्तु घरइ अंघणे अवस्स ॥ १०. १० कर्मनी गतिथी माता-पिता पण आपत्तिनुं निमित्त बनी जाय छे, गायनी जांघ ज वाछरडाने बंधन माटेना थांभलानु रूप धारण करे छे. ११ आहार-निहा-भय-मेहुणाई, माणुसह वि तिरियाण वि समाई । अब्भहिउ धम्मु पर माणुसाण, सो जाह नरिथ ते पसु-समाण ॥ ११.६ आहार, निद्रा, भय अने मैथुन तो मनुष्य अने पशु बन्नेमा समान छे. पण माणसमां पधारानो गुण धर्म छे. ए जेनामां न होय ते पशु समान छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001874
Book TitleVilasvaikaha
Original Sutra AuthorSadharan
AuthorR M Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages310
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy