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विलासवई - :-कहा
तपश्चर्या करता करता अने समग्र देशमां विहार करतां करतां सनत्कुमारमुनिने क्रमे क्रमे ज्ञानप्राप्ति थई. परिभ्रमण करतां करतां ते मुनि शत्रुंजय गिरिए आग्या. त्यां अनेक मुनिजनो साथै अनशन ग्रहण करी, निःशेष कर्म खपावी, केवलज्ञान प्राप्त करी सिद्ध थया. बीजा पण मुनिपोतपोताना कर्म खपावी जुदा जुदा देवलोकमां गया. (३६-३९)
४. समराइच्च - कहा साथे साम्य अने मौलिकता विलासवई - कहानी प्रशस्तिमां कवि नोंधे छे
समराइच्चकहाओ उद्धरिया सुद्ध-संद्धि-बंधेण । कोऊहले एसा पसण्ण-वयणा विलासवई ॥ जं चरियाओ अहियं किं पि इह कप्पियं मए रइयं । पडिबोह - कारणेण खमियव्वं मज्झ सुयणेहिं ||
' में (साधारण कविए) समराइच्चकहामांथी वस्तु लई कुतूहलपूर्वक शुद्ध सन्धि-बन्धमां आ प्रसन्नकर पदरचनावाली विलासवतीकथानी रचना करी छे. चरित्र (समरादित्य-चरित्र के समराइच्च-कहा ) करतां आमां (विलासवई - कहामां) जे कई वधारे छे ते पाठकोने उपदेश आपका माटे में कल्पनाद्वारा रचेलुं छे, तो सज्जनो ते बदल मने क्षमा करे. '
विलासवई-कहानो उद्गम- स्रोत आम प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्रसूरि ( ई०स०७००-७७०)'रचित प्राकृत भाषाबद्ध महाकथा समराइच्चकहा? छे ते स्पष्ट छे.
समराइच्च-कहामां गुणसेन (नायक) अने अग्निशर्मा (प्रतिनायक ) वच्चेनी वैर-परम्परानी भवन कथा वर्णवाई छे. पूर्व पूर्वना भवना अनुसन्धानमां कथा आगळ वघती होवा छतां प्रत्येक भव एक एक स्वतन्त्र कथा समान छे. तेमां पांचमा भवमां आडकथा रूपे सनत्कुमार अने विलास तीनी प्रणयकथा विस्तारथो आवे छे. साधारण कविए समराइच्च-कहामांनी आ विलासवती - सनत्कुमारनी वार्ता लई तेना आधारे ज पोतानी कृति रची छे.
पोतानी प्रतिभाना बळे विलासवई - कहाने एक मौलिक अपभ्रंश धर्मकथा - काव्यनुं रूप आपवामां साधारण विकेटला सफळ रह्या छे ते जोतां पहेलां समराइच्च - कहाना पंचम-भवनो साधेनुं विलासवई - कहानुं साम्य नोंध जोईए.
विलासवई - कहा प्रथम आठ संधि सुधीनी - विलासवती अने सनत्कुमारना संयोग वियोग अने पुनः संयोग सुधीनी - समग्र कथा अवान्तर घटनाओ साथ समराइच्च - कहानी कथाम कशाये फेरफार विनोज साधारण कविए उद्धृत करी छे. आठ संधि सुधी घटनाओनी रजुआत अने क्रममां पण कोई फेरफार नथी. एटले ज नहि, तदुपरांत विलासवईकारे समराइच्च-कहामांथी शब्दो, वाक्यो, भावो, अलंकारो अने केटलीक वार तो पूरा वर्णनखंडो शब्दशः पोतानी रचनाम ग्रहण कर्या छे. ने कृतिओमांथी लीघेला नीचेना उद्धरणो आ हकीकत स्पष्ट करे छे:
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१. जुओ हरिभद्राचार्यस्य समयनिर्णय: - मुनि जिनविजय, २. समराईच्च - कहा, सम्पादक-प्रकाशक : पं० भगवानदास,
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