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________________ २.११ - ] अजवि परियच्छहि कज्जु जाणि परिपंथ न किज्जइ तासु लोइ तुहु चोरें सरिसु मरंतयस्स १० तो वोरसेणु जंपर सुणेहु विलासवई कहा सरणाइउ जे नर परिहरति निय वयणे वि न निट्ठा हु जाह तो चोरु समप्प एहु नाहिं ear afi atfar as इय जाव भणिय कुल - उत्तएण गुणवंत वंस - विशुद्धयाई जो मित्तु विवंचइ परु दुइ बिहुरे वि जेण सामि छड्डज्जइ । सरणाइउ जो कर परिहरइ ति पर दिएण हाइज्जइ ॥ १० ॥ [११] २३ एहु चोरु समप्पि म करहि काणि । जो मासुको विविसि होइ । गुणु कवणु होइ जुज्झतयस्स । भो सुडो मा एरि भणेहु । न य विहलिय-जण अब्भुद्धरंति । निक्कारणु सुहत्तणु वि ताहं । Jain Education International मुय उपरि गड्डा किं न जाहिं । तो मुट्ठिहि उपरि को लुणेइ । आओहणु लागउ तो खणेण । तह मुट्ठिहि मज्झि निविडयाई । ५ सु-कलत्ताई व नमंतयाई रक्खस जिह पत्थिय रुहिर-पाण के वि एकमेक हक्कत दुक फारक के वि उक्खित्त-खग्ग के वि आसारोह मुयंति सेल्ल १० सर-वरि निरंतरु करहिं जोह अच्छाई नहलु सर - भरेण एहिं विवाहयालिहि नियत्तु तुह जणउ आस - सारण-समेउ रणु पेच्छिवि पुच्छिय पुरिस तेण १५ नरवर - पुरिसेहिवि कहि सव्वु रे रे जा जीविउ महु धरेइ हाई तेहिं आरोवियाई । आययि तिक्ख सलक्ख बाण | पाइक चक चक्केहि अचुक | ओति घाउ भड-रुद्ध - मग्ग | मेल्लति भल्लि वेल्लंत भल्ल । जुज्झति परोपरु धरिय-कोह | हुउ दारुणु तं रणु तक्खणेण तहिं कालि कुमरु सुमहंत सत्तु । संपत्तउ सिरि- जसवम्मदेउ । रे जुज्झह तुम्हे हि सरिसु केण । तेवि भणाविय ते सगव्वु । सरणागय वच्छल को वहे । [१०] ७. ला० परिभच्छहि मं करहि ९. पु० तुह, ला० चोरिं १४. ला० सरणा[११] १. पु० ता. १०. ला० निरंतर 'जुज्झत १२. पु० काळे १४. ला० पेच्छेवि गउ....... णाइज्जइ. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001874
Book TitleVilasvaikaha
Original Sutra AuthorSadharan
AuthorR M Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1977
Total Pages310
LanguagePrakrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size17 MB
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