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दशार्णभद्र- कथा |
परमेष्ठिनमस्कारं स्मरन् भूपतिरभ्यधात् । नमस्कारस्य महात्म्यं दृष्टप्रत्ययमेव मे ॥ तथा हि
स्वयं सकलसैन्येन दिग्यात्रा कुर्वतोऽपि मे । असिध्यत नार्थोऽनर्थः प्रत्युत कोऽप्यभूत् ॥ अधुना तन्नमस्कारं स्मरतो मम शत्रवः । वणिजैरपि जीयन्ते दण्डेशैरम्बडादिभिः ॥ स्वचक्रं परचक्रं वा नानर्थं कुरुते कचित् । दुर्भिक्षस्य न नामापि श्रूयते वसुधातले । ततस्तमस्मरन्नेवं निद्रां भजति पार्थिवः । रात्रिशेषे तु जागर्ति मागधोक्तैर्जिनस्तवैः ॥ सूल - जलोयर - सास- खास खय-खसर - कवस्थिय,
कुट्ट-गलंत - समत्त-गत्त-कंठ-माल-कयत्थिय, पडल- समन्निय- नयण-वयण- निविडिर -रुहिर - ज्झर,
अरस- अरोयय-गहिय-अहिय- पसरिय- दाह-ज्जर, गुररोय-परंपर- पीडिय-विसज्ज - सरीर ति हुंति पर । तइलुक्क- पयड-माहप्प - निहि पासनाहु पुज्जइं जि नर ॥ जंगम-गिरि-संरंभ-रंभ- कुंभयड-भयंकरु,
मय- जल-परिमल- मिलिय-भसल-कलयल-कय-डंबरु,
प्रस्तावः ]
बल - उद्ग्ग - भग्ग-उद्दाम दुमुक्करु,
उप्पाडिय - जम-दंड- चंड-मुंडाउडामरु,
धावंतु वि कोव करालु करि करइ न किंचि वि नरहं तहं । तियसिंद-नमंसिय-पय-कमलु पासणाहु मणि वसई जहं ॥ गयण-मग्ग- - संलग्ग-लोल-कल्लोल-परंपरु,
निक्करुणुक्कड - नक्क- चक्क - चंक्रमण दुहंकरु, उच्छलंत-गुरु-पुच्छ-मच्छ- रिंछोलि- निरंतरु,
विलसमाण - जाला - जडाल - वडवानल-दुत्तरु, आवत्त-सयायलु जलहि लहु गोपउ जिम्व ते नित्थरहि । नीसेस - वसण-गण-निट्ठवणु पासनाहु जे संभरहि ॥ हर- गल-गवल-तमाल-भसल - कज्जल-कालप्पहु,
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