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________________ ४३६ Jain Education International कुमारपाल प्रतिबोधे सग्गेवि गयह कुक्कुरु हवंति, किरि पुन विगह इह न भंति ॥ ९३ ॥ चवणम्मि दइय-तियसंगणाई, तणु- कंति - भरिय - गयण-गणाइ । विरहानल झलुसिय "मग्गि वि नरय दुक्खु ॥ ९४ ॥ जइ हउं पहुत्तु सुरलोइ कह वि, विसयास वियंभिय मज्झ तह वि । जइ राहु पत्तउ सग्ग लोइ, परिहरइ न दावणु पुट्टि तोइ ॥ ९५ ॥ कंदप्प -सह- प्पसर - पसर- भीरु, रइ - कलह - कोव - कंपिर- सरीरु । घरदासु व्व पियाइ पाएसु पडिओ, हउं ही वि गुत्तु विसयास- नडिओ ॥ ९६ ॥ ईसा विसाय-भय- मोह-माय, मय- कोह- लोह- वम्मह - पमाय । मह सग्ग गयस्स वि पिट्टि लग्ग, ववहरय जेव रिणिअह समग्ग ॥ ९७ ॥ सुररिद्धि नियवि हरिसिक्क - भवणु, निव्वेय हे चिंते व चवणु । तह जाणि विनाणि कुठाणि जम्मु, जन्न उट्टु फुटु तं बलिउ कम्मु ॥ ९८ ॥ खणि वणि वणाउ भवणाउ भवणु, ह अल्लियं तु सयणाउ सयणु । दिवचवण समइ दुहु पत्तु दीणु, जिम्व तत्तसिलालि खित्तु मीणु ॥ ९९ ॥ इय तुम्हह अविणअ, सुर-भवि परिणउ, मज्झ दुक्खरूवेण तिम्व । air vas, अरइ विसइ, सग्गसुहस्स वि उवरि जिम्व ॥ १०० ॥ For Private & Personal Use Only [ पथ्यमः www.jainelibrary.org
SR No.001873
Book TitleKumarpal Pratibodh
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorJinvijay
PublisherCentral Library
Publication Year1920
Total Pages564
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size11 MB
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