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कुमारपालप्रतिबोध-सङ्केपः ।
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लभंति अंबयाई नहि निंबतरुमि ववियंमि ।। जो जीव-वहं काउं करेइ खण-मित्तमत्तणो तित्तिं । छेयण-भेयण-पमुहं नरय-दुहं सो चिरं लहइ । जं दोहग्गमुदग्गं जं जण-लोयण-दुहावहं रूवं । जं अरस-मूल-खय-खास-सास-कुट्ठाइणो रोगा। जं कण्ण-नास-कर-चलण-कत्तणं जं च जीवियं तुच्छं । तं पुव्वारोविय-जीव-दुक्ख रुक्खस्स फुरइ फलं ॥ जो जीव-दयं जीवो नर-सुर-सिव-सोक्ख-कारणं कुणइ । सो गय-पावो पावेइ अमरसीहो व कल्लाणं ॥
(अमरसिंहादिककथानकान्यत्रानुसन्धेयानि ) . कुमारपालस्य इय जीव-दया-रूवं धम्म सोऊण तुट्ठ-चित्तेण । जीवदयाभि- रत्ना भणियं मुणि-नाह ! साहिओ सोहणो धम्मो ॥ रुचिः। एसो मे अभिरुइओ एसो चित्तंमि मज्झ विणिविट्ठो।
एसो च्चिय परमत्थेण घडए जुत्तीहिं न हु सेसो ॥ जओ
मन्नंति इमं सव्वे जं उत्तम-असण-वसण-पमुहेसु । दिन्नेसु उत्तमाई इमाई लभंति पर-लोए । एवं सुह-दुक्खेसुं कीरतेसुं परस्स इह लोए । ताई चिय पर-लोए लब्भंति अणंत-गुणियाई ॥ जो कुणइ नरो हिंसं परस्स जो जणइ जीविय-विणासं । विरएइ सोक्ख-विरहं संपाडइ संपया-भंसं ॥ सो एवं कुणमाणो पर-लोए पावए परेहिंतो । बहुसो जीविय नासं सुह-विगमं संपओच्छेयं ।। जं उप्पइ तं लब्भइ पभूयतरमित्थ नत्थि संदेहो । वविएसु कोद्दवेसुं लब्भंति हि कोदव चेय ।। जो उण न हणइ जीवे जो तेसिं जीवियं सुहं विभवं । न हणइ तत्तो तस्स वि तं हणइ को वि पर-लोए ॥ ता भद्देण व नूणं कयाणुकंपा मए वि पुव्व-भवे । जं लंघिऊण वमणाई रज-लच्छी इमा लद्धा ।। ता संपइ जीव-दया जाव-जीवं मए विहेयव्वा । मंसं न भक्खियध्वं परिहग्यिव्वा य पारद्धी ।। जो देवयाण पुरओ कीरइ आरुग्ग-संति-कम्म-कए ।
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