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-१.५.]
प्रथमो विभागः अन्त्यं वैश्रवणाख्यं च सक्रोशं षट्कमुच्छ्रितिः। जाम्बूनदानि सर्वाणि व्यन्तराकोडनानि च ॥ ४५
यो ६ को १। पादोनक्रोशमुत्तुङग पूर्ण गव्यूतिमायतम् । चैत्यं तस्यार्धविस्तीर्ण कूटे प[पू]र्वमुखं स्थितम् ॥ ४६ द्वे शते त्रिंशदष्टौ च कलास्तिस्रश्च पार्थवम् । दक्षिणार्धस्य विज्ञेयमुत्तराऽर्धेऽपि तत्समः ॥ ४७
यो २३८ । १२ । शतानां सप्तनवतिः साधिका षड्भिरष्टकैः । कलाश्च द्वादशैवोवता ज्याधस्य भरतस्य वा ॥४८
__ यो ९७४८ । ।३। इषुणा होनविष्कम्भाच्चतुभिर्गुणितात् पुनः। बाणेन गुणितान्मूलं जीवा स्यादिति भाषिता ।। ४९ षड्गुणितादिषुवर्गाज्जीवावर्गेण संयुतात् । मूलं चापं भवेदेवं भाषितं मुनिपुङगवैः ।। ५०
उंचाई एक कोस सहित छह (६१) योजन प्रमाण है। ये सब सुवर्णमय कूट व्यन्तर देवोंके क्रीडास्थान हैं ।। ४३-४५ ।। [सिद्धायतन ] कूटके ऊपर पाद कम एक (३) कोस ऊंचा, पूरा एक कोस आयत और उसका आधा विस्तीर्ण ऐसा पूर्वाभिमुख चैत्यालय स्थित है ॥ ४६॥ दक्षिण भरतार्धका विस्तार दो सौ अड़तीस योजन और तीन कला (२३८५३) प्रमाण जानना चाहिये । उत्तर भरतार्धका भी विस्तार उसीके बराबर है । विशेषार्थ- भरत क्षेत्रका विस्तार ५२६कर योजन है। इसके ठीक बीच में ५० योजन विस्तृत विजयार्ध पर्वत स्थित है। अत एव भरत क्षेत्रके दो विभाग हो गये हैं। समस्त भरत क्षेत्रके विस्तारमेंसे विजयार्धके विस्तारको कम करके शेषको आधा कर देनेपर दक्षिण व उत्तर भरतार्धका विस्तार होता है। यथा-- ५२६पर - ५० - २ = २३८ करे ॥४७॥ छह अष्टकों (६४८ = ४८) से अधिक सत्तानबै सौ योजन और बारह कला प्रमाण (९७४८३३ यो.) अर्ध भरतकी जीवा कही गई है ॥४८॥ बाणसे रहित विस्तारको चारसे गुणित करे, पश्चात् उसे बाणसे गणित करनेपर जो प्राप्त हो उसका वर्गमूल निकाले । इस प्रक्रियासे जीवाका प्रमाण प्राप्त होता है, ऐसा परमागममें कहा गया है। उदाहरण- दक्षिण भरतका बाण १५२५; वृत्तविस्तार- १९०००००; (१९६९९०० - ४५२५ ) - (१५२५४ ४) = ३४३०९.०९७५०० ; V३.३०८०९७५०० = १८५२२४ = ९७४८३३ दक्षिण भरतकी जीवा॥४९।। बाणके वर्गको छहसे गुणित करके प्राप्त राशिमें जीवाके वर्गको मिला देनेपर उसका जो वर्गमूल होगा उतना धनुषका प्रमाण होता है, ऐसा मुनियोंमें श्रेष्ठ गणधर आदिकोंके द्वारा निर्दिष्ट किया गया है ।
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