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________________ २१२] लोकविभागः [१०.३१९शतानि सप्त सप्तापि देवाः सारस्वताः मताः। तुषिता गर्दतोयाश्च आदित्याश्च तथोदिताः॥३१९ ।७०७। ७०७। नवाग्राणि शतानि स्युर्नवाप्याग्नेयनामकाः । अव्याबाधास्तथारिष्टा आग्नेयसमसंख्यकाः ॥३२० ।९०९। चतुर्दशसहस्राणि चतुर्दश च केवलाः । वह्नयः संख्यया ज्ञेया अरुणा अपि तत्समाः ॥३२१ ।१४०१४। उक्तानि त्रिलोकप्रज्ञप्तौ [ति. प. ८, ५९७-६३४]अरुणवरदीवबाहिरजगदीदो जिणवरुत्तसंखाणि । गंतूण जोयणाणि अरुणसमुदस्स पणिधीए ॥२० एक्कदुगसत्तएक्के अंककमे जोयणाणि उरि णहे। गंतूणं वलयेणं चिठेदि तमो तमोक्कायो ॥२१ ।१७२१। आदिमचउकप्पेसु देसवियप्पाणि तेसु कादूण । उवरिगदबम्हकप्पप्पमिदयपणिधितलपत्ते ॥२२ मूलम्मि रुंदपरिही' हवंति संखेज्जजोयणा तस्स । मज्झम्मि असंखेज्जा उरि तत्तो असंखेज्जा। संखेज्जजोयणाणि तमकायादो दिसाए पुवाए । गच्छेय सडंस मुरवायारधरा दक्खिणुतरायामा।। णामेण किण्णराई पच्छिमभागे वि तारिसा य तमो। दक्खिणउत्तरभागे तम्मेत्तं गदुव दोहचउरस्सा॥ एक्केक्ककिण्णराई हवेइ पुन्वारि तदायामा।एदाओ राजीवो णियमेण छिवंति अण्णोणं ॥२६ श्रेणीबद्ध कहा गया है ॥ ३१८ ॥ सारस्वत देव सात सौ सात (७०७) माने गये हैं। तुपित, गर्दतोय और आदित्य भी उतने (७०७) ही कहे गये हैं ।।३१९॥ आग्नेय नामक देव नौ सौ नौ (९०९) हैं। अव्यावाध और अरिष्ट देवोंकी संख्या आग्नेय देवोंके समान (९०९) है ।।३२०।। वह्नि देव संख्यामें चौदह हजार चौदह (१४०१४) हैं। अरुण देव भी संख्यामें वह्नि देवोंके समान (१४० १४) जानना चाहिये ॥३२१ ।। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इस विषयमें निम्न गाथायें कही गई हैं - अरुणवर द्वीपकी बाह्य वेदिकासे जिनेन्द्र देवके द्वारा कही गई संख्या प्रमाण योजन जाकर अरुण समुद्रके प्रणिधि भागमें अंकक्रमसे एक, दो, सात और एक (१७२१) इतने योजन ऊपर आकाशमें जाकर वलयाकारसे तमस्काय तम स्थित है ॥२०-२१॥ प्रथम चार कल्पोंमें देशभेदोंको करके उनके ऊपर स्थित ब्रह्मकल्पके प्रथम इन्द्रकके प्रणिधितलको प्राप्त हुए उस तमस्कायके विस्तारकी परिधि मूलमें संख्यात योजन, मध्यमें असंख्यात योजन और उसके ऊपर असंख्यात योजन है ।।२२-२३।। उस तमस्कायकी पूर्व दिशामें संख्यात योजन जाकर षट्कोण व मृदंगके आकारको धारण करनेवाली दक्षिण-उतर लंबी कृष्णराजी है। उसी प्रकार कृष्णराजी नामका अन्धकार पश्चिम भागमें भी है। दक्षिण और उत्तर भागमें भी उतने मात्र योजन जाकर पूर्वापर आयामवाली आयतचतुरस्र एक एक कृष्णराजी स्थित है । ये कृष्णराजियां नियमसे १ आ प मूलंबिरुंद । २ ति. प. गच्छिय । ३ मा प सडस्स । ४ ति. प. गंधुव । ५ ति. प. पुव्वावरठ्ठिदायामा । ६ ति. प. णियमा ण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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