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________________ -१०.३१८] दशमो विभागः (२११ एकविंशतियुक्तानि शतानि दश सप्त च । उद्गत्यातः शरावाभं गतं विस्तीर्यमाणकम् ॥३०८ विष्कम्भपरिधी तस्य मूले संख्येययोजने । अग्रे त्वसंख्ये तस्माच्च कृष्णराज्यष्टकं बहिः॥३०९ प्रागायताश्चतस्रोऽत्र चतस्त्रश्चोत्तरायताः । वेदिकायुग्मवत्ताश्च अन्योन्यं संश्रिताः स्थिताः॥३१० पूर्वापरे बहीराज्यौ षडझे तिमिरात्मके । दक्षिणोत्तरराज्यौ तु संस्थानाच्चतुरस्रिते ॥३११ अन्तः पूर्वापरे राज्यौ चतुरस्त्रे प्रकीर्तिते । दक्षिणोत्तरराज्यौ तु त्र्यले पूर्वापरायते ॥३१२ आकाशोऽभ्यन्तराद् बाह्यः संख्येयगुण उच्यते । राज्यप्यभ्यन्तरा तद्वत्तमस्कायस्ततोऽधिकः॥३१३ देशोनाभ्यन्तरायाश्च बाह्यराजी प्रकीर्तिता। बाह्यायाश्च पुना राज्या राजीमध्यं तु साधिकम्॥ मध्ये तु कृष्णराजीनां लौकान्तिकसुरालयाः। पूर्वोत्तराद्यास्तेऽष्टौ च दृष्टाः सारस्वतादयः ॥३१५ सारस्वताश्च आदित्या वह्नयश्चारुणा अपि । गर्दतोयाश्च तुषिता अव्याबाधाश्च सप्तमाः॥३१६ आग्नेया उत्तरस्यां च अरिष्टा मध्यमाश्रिताः । लौकान्तिका विनारिष्टरष्टसागरजीविताः॥३१७ उक्तं च [त्रि. सा. ५४०]चोद्दसपुव्ववरा' पडिबोहकरा 'तित्थयरविणिक्कमणे । एदेसिमट्ठजलही ठिदी अरिदृस्स णवचेव॥ प्रकीर्णकविमानानि तेषां वृत्तानि तानि च । अरिष्टानां विमानं तु प्रोक्तमावलिकागतम् ॥३१८ सत्तरह सौ इक्कीस (१७२१) योजन ऊपर उठकर सकोरेके आकारको धारण करता हुआ विस्तारको प्राप्त हुआ है। उसका विस्तार और परिधि मूलमें संख्यात योजन और फिर आगे असंख्यात योजन प्रमाण है। उसके बाहिर आठ कृष्णराजियां हैं। इनमें चार राजियां पूर्वमें आयत तथा चार राजियां उत्तरमें आयत हैं। वे राजियां वेदिकायुगलके समान परस्परका आश्रय लेकर स्थित हैं । अन्धकारस्वरूप पूर्वापर बाह्य राजियां षट्कोण तथा दक्षिण-उत्तर राजियां आकारमें चतुष्कोण हैं। भीतरकी पूर्वापर राजियां चतुष्कोण तथा दक्षिण-उत्तर राजियां त्रिकोण व पूर्वापर आयत कही गई हैं। अभ्यन्तर आकाशकी अपेक्षा बाह्य संख्यातगुणा कहा जाता है, उसी प्रकार अभ्यन्तर राजी भी संख्यातगुणी है, तमस्काय उससे अधिक है, अभ्यन्तर राजीसे बाह्य राजी कुछ कम तथा बाह्य राजीसे मध्य राजी कुछ अधिक कही गई है ॥३०७-३१४॥ इन कृष्णराजियोंके मध्यमें लौकान्तिक देवोंके विमान हैं। वे सारस्वत आदि आठ लौकान्तिक देव पूर्व-उत्तर (ईशान) आदि दिशाओंके क्रमसे देखे गये हैं ॥३१५॥ सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित और सातवें अव्यावाध ये; क्रमसे ईशान आदि दिशाओं में स्थित हैं। आग्नेय लौकान्तिक उत्तरमें तथा अरिष्ट मध्यमें रहते हैं। अरिष्टोंको छोड़कर शेष सात लौकान्तिक देवोंकी आयु आठ सागर प्रमाण होती है ॥३१६-३१७।। कहा भी है उत्तम चौदह पूर्वोके धारक वे लौकान्तिक देव तीर्थंकरोंके तपकल्याणकमें उन्हें प्रतिबोधित करते हैं। इनकी आयु आठ सागरोपम मात्र है। परन्तु अरिष्ट देवोंकी आयु नौ सागरोपम प्रमाण होती है ।।१९।।। उनके प्रकीर्णक विमान हैं और वे गोल हैं । परन्तु अरिष्ट लौकान्तिकोंका विमान १ मा ५ गतविस्तीर्य । २ प अतोऽग्रेऽग्रिम 'दक्षिणोत्तरराज्यौ तु ' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितोऽस्ति । ३ व आकाशे । ४ त्रि.सा. 'पुवधरा' पाठोस्ति । ५ व तित्थयरा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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