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________________ १९६] लोकविभागः [१०.१९० क्रमेण द्विगुणाः कक्षाः सर्वासामपि संग्रहः । श्रीणि शून्यानि षट्सप्तषट्चतुःसप्तकानि च ॥१९० शेषाणामाद्यकक्षाश्च स्वसामानिकसंख्यकाः । क्रमेण द्विगुणाः कक्षाः संग्रह तासु लक्षयेत् ॥१९१ परं शून्यचतुष्कात्तु द्वे चैकैकं च सप्त च । शून्यत्रिकात्पुनश्चाष्टौ खखचत्वारि षट् तथा ॥१९२ चतुर्य ऊर्वे शून्येभ्यस्त्रीणि द्वे द्वे पुनश्च षट् । ब्रह्मे चत्वारि च त्रीणि त्रीणि पञ्च तथोत्तरे ॥ पञ्च चत्वारि चत्वारि चत्वारि च पुनर्द्वयोः । षट् पञ्च पञ्च च त्रीणि शुक्रयुग्मे भवन्ति च ॥१९४ सप्त षट् षड् द्विकं चैव शतारद्वितये पुनः । अष्ट सप्त च सप्तकमानतादिचतुष्टये ॥१९५ पृथक् प्रथम कक्षाका प्रमाण चौरासी हजार (८४०००) है ॥ १८९ ॥ उसकी दूसरी-तीसरी आदि कक्षाओंका प्रमाण क्रमशः उत्तरोत्तर इससे दूना होता गया है । सौधर्म इन्द्रकी सब (४९) कक्षाओंका प्रमाण अंकक्रमसे तीन शून्य, छह, सात, छह, चार और सात (७४६७६०००) इतना है ॥ १९०॥ शेष ईशानादि इन्न्द्रों की प्रथम कक्षाओंका प्रमाण अपने अपने सामानिक देवोंकी संख्याके समान है। उनकी द्वितीय आदि कक्षाओंका प्रमाण उत्तरोत्तर इससे दूना है। उनकी समस्त कक्षाओंका संकलित प्रमाण क्रमशः इस प्रकारं जानना चाहिये-- शून्य चार, दो, एक, एक और सात (७११२००००); इतना ईशान इन्द्रकी समस्त अनीकका प्रमाण है। तीन शून्य, आठ, शून्य, शून्य, चार और छह (६४००८०००); इतना सनत्कुमार इन्द्रकी समस्त अनीकका प्रमाण है। चार शून्य, तीन, दो, दो और छह (६२२३००००); इतना माहेन्द्र इन्द्रकी समस्त अनीकका प्रमाण है। चार शून्य, चार, तीन, तीन, और पांच (५३३४००००) इतना ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर इन्द्रकी पृथक् पृथक् समस्त अनीकका प्रमाण है । चार शून्य, पांच, चार, चार और चार (४४४५००००); इतना आगेके दो इन्द्रों (लान्तव और कापिष्ठ) की समस्त अनोकका प्रमाण है। चार शून्य, छह, पांच, पांच और तीन (३५५६००००); इतना शुक्रयुगलकी समस्त अनीकका प्रमाण है। चार शून्य, सात, छह, छह और दो (२६६७००००); इतना शतारयुगलकी समस्त अनीकका प्रमाण है । चार शून्य, आठ, सात, सात और एक (१७७८००००); इतना आनतादि चारकी समस्त अनीकका प्रमाण है। १९१-१९५ ।। विशेषार्थ- दुगुणे दुगुणे कमसे वृद्धिको प्राप्त होनेवाली अनीककी उपयुक्त सात कक्षाओंके संकलित धनको लानेके लिये निम्न करणसूत्र का उपयोग होता है- गच्छके बराबर गुणकारोंको रखकर उनको परस्पर गुणा करनेसे जो प्राप्त हो उसमेंसे एक अंक कम करके शेषमें एक कम गुणकारका भाग देकर मुखसे गुणित करनेपर विवक्षित धन प्राप्त हो जाता है। प्रकृतमें सौधर्म इन्द्रको प्रथम अनीक की प्रथम कक्षाका प्रमाण ( ८४००० ) मुख, गुणकार २ और गच्छ ७ है । अत एव उक्त प्रक्रियाके अनुसार सात स्थानोंमें गुणकार २ को रखकर परस्पर गुणा करनेपर२x२x२x२x२x२x२-१२८प्राप्त होते हैं, उसमें एक कम करके एक कम गुणकारका भाग देकर मुखसे गुणित करनेपर (१२८-१) (२-१)x८४००० = १०६६८००० इतना प्रथम अनीककी सातों कक्षाओंका समस्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है। इसको सातसे गुणित करनेपर सौधर्म इन्द्रकी सातों अनीकोंका समस्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है-१०६६८०००४७ =७४६७६००० । इसी प्रकारसे ईशान आदि शेष इन्द्रोंकी भी अनीकोंका प्रमाण ले आना चाहिये जो निम्न प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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