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________________ ११४] लोकविभागः [६.८१त्रिपञ्चाशच्छतं पञ्च षष्टयंशाश्च' चतुर्दश । बाह्ये च परिधौ सूर्यमुहूर्तगमनं भवेत् ॥ ८१ प्रक्षेपेण पुनयूंना यान्त्या मौतिकी गतिः । उपान्त्या च तृतीया च मुहूर्तगतिरिष्यते ॥ ८२ द्विशतस्यकविंशस्य त्रयोविंशतिरंशकाः। द्विषष्टिश्च मुहूर्ताः स्युः शशिनो मण्डले गतौ ॥ ८३ इन्दो: पञ्चसहस्राणि चतुःसप्ततिरेव च । किंचिदूना मुहूर्तेन चान्तर्मन्दगतिर्भवेत् ॥ ८४ ।५०७४ ऋणं १३९४२५ । त्रिभिरभ्यधिका सैव सप्तभागैश्च पञ्चभिः । किंचिदूनर्गतिवेद्या शशिनः प्रतिमण्डले ॥ ८५ ।३। । शतं पञ्चसहस्राणि मध्यमौहूतिको गतिः। षड्विंशत्या युतं' तत्तु शीघ्रा भवति बाहिरे ॥ ८६ ।५१२६ । प्रक्षेपोनं तदेव स्याद् बाह्यानन्तरमण्डले । तावदूनं पुनश्चैव तृतीये मण्डले गतिः ॥ ८७ बाह्य परिधिमें सूर्यकी मुहूर्तप्रमित गतिका प्रमाण तिरेपन सौ पांच योजन और एक योजनके साठ भागोंमेंसे चौदह भाग मात्र है- बाह्य परिधि ३१८३१४ यो.; ३१८३१४२६० == ५३०५१४ यो. । अथवा चयका प्रमाण ६४० है, अतः ५२५१३४+३६६५४ (१८४-१)} == ५३०५१४ यो. ॥ ८१ ॥ सूर्य की जो यह मुहूर्तप्रमाण अन्तिम गति है उसमें से एक प्रक्षेप (१५) को कम कर देनेपर उसकी मुहूर्तप्रमित उपान्त्य गतिका प्रमाण होता है, इसमेंसे भी एक प्रक्षेपको कम कर देनेसे अन्तिम वीथीकी ओरसे उसकी तीसरी मुहूर्तप्रमित गति मानी जाती है ॥ ८२ ॥ अपनी वीथियोंमेंसे किसी भी एक वीथीमें संचार करते हुए चन्द्रके उसको पूरा करने में बासठ मुहूर्त और एक मुहूर्तके दो सौ इक्कीस भागोंमेंसे तेईस भाग प्रमाण (६२३३३ मुहूर्त) काल लगता है ।। ८३ ॥ [प्रथम वीथीमें ] चन्द्रकी मुहूर्तप्रमित मन्द गतिका प्रमाण पांच हजार चौहत्तर (५०७४) योजनसे किंचित कम है-परिधि ३१५०८९ == ६९६३१६६ एक वीथीको पूरा करनेका काल ६२२३३ - १३५२५ मुहूर्त; ६५६३६६६ : १३५२५ = ५०७३ ६७४३५ = ५०७३ यो. और ३ कोससे कुछ कम ।८४।। वही गति आगे द्वितीय आदि वीथियोंमेंसे प्रत्येक वीथीमें उत्तरोत्तर तीन योजन और एक योजनके सात भागोंमेंसे कुछ कम पांच भागों (३५) से अधिक होती गई जानना चाहिये ।। ८५ ।। मध्यमें चन्द्रकी मुहर्तगतिका प्रमाण पांच हजार एक सौ (५१००) योजन है, इसीमें छब्बीस (=३७४७) योजनोंके मिला देनेपर वह (५१२६) उसकी बाह्य वीथीमें मुहूर्तप्रमित शीघ्रगतिका प्रमाण होता है ॥ ८६ ।। एक प्रक्षेप (३७)से कम वही बाह्यसे अनन्तर अर्थात् उपान्त्य वीथीमें चन्द्रकी मुहूर्तप्रमित गतिका प्रमाण होता है । इसमेंसे भी उतना ही कम कर देनेपर शेष रहा बाह्यकी ओरसे तृतीय वीथीमें उसकी मुहूर्तप्रमित गतिका प्रमाण होता है ।। ८७ ।। १ मा प षष्ठपंशाच्च । २ विंशत्युतं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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