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________________ ११२] लोकविभागः [६.६९एकषष्ठयंशकः शुद्धनियुतं षड्गुणिताष्टकैः । सूर्ययोरन्तरं मध्यं लावणस्योर्ध्वयायिनोः ॥ ६९ ।१००००० । ऋणं ।। जम्बूद्वीपजगत्याश्च अर्धसूर्यान्तरान्तरे । मण्डलेऽभ्यन्तरे ज्ञेयो वर्तमानो दिवाकरः ॥ ७० ।४९९९९ ।।। षट्पष्टिश्च सहस्राणि षट्पष्टया षट्छतानि च । धातकोखण्डसूर्याणां देशोनान्यन्तरं मतम् ॥ ७१ । ६६६६६ । ऋणं २२ ।। लावणस्य जगत्याश्च अर्धसूर्यान्तरान्तरे। मण्डलेऽभ्यन्तरे ज्ञेयो वर्तमानो दिवाकरः॥७२ ।३३३३३ । ऋणं ३ । = ३१८३१३२६४ यो. । बाह्य परिधि ३१८३१३३९७ - २३०१13 = ३१८०८३१५७ यो. उपान्त्य परिधि ॥ ___ लवणोद समुद्रके ऊपर संचार करनेवाले दो सूर्योके मध्यमें एक योजनके इकसठ भागोंमेंसे छह गुणे आठ अर्थात् अड़तालीस भागोंसे कम एक लाख (९९९९९९३) योजन प्रमाण अन्तर होता है ।। ६९ ।। विशेषार्थ- लवणोद समुद्र में संचार करनेवाले सूर्योकी संख्या ४ है। इनमें दो सूर्य लवणोद समुद्रके इस ओर तथा दो सूर्य उस ओर संचार करते हैं। इन दोनों सूर्योके मध्य में रहनेवाले अन्तरका प्रमाण जो यहां ९९९९९१ ३ योजन बतलाया गया है वह इस प्रकारसे प्राप्त होता है- लवणोद समुद्र में एक ओर चूंकि २ ही सूर्य संचार करते हैं; अत एव उसके विस्तारमेंसे दो सूर्यबिम्बोंके विस्तारको घटाकर शेषमें आधी सूर्यसंख्या (३) का भाग दे देनेसे उपर्युक्त अन्तर प्राप्त हो जाता है । जैसे - (२००००० - (१६४३)} : ₹ = ९९९९९३= (१०००००-१६) यो. ऊपर जो दोनों सूर्योके मध्यमें अन्तर बतलाया गया है उससे आधा अन्तर जंबूद्वीपकी जगती और लवणोद समुद्र में संचार करनेवाले सूर्यके अभ्यन्तर वलयमें जानना चाहिये९९९९९१३ : २४९९९९३ ६ यो. ॥ ७० ॥ विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि लवण समुद्र में जो चार चार सूर्य-चन्द्र संचार करते हैं वे एक एक परिधिमें दो दो हैं। इनमें लवण समुद्रकी अभ्यन्तर वेदीसे ४९९९९३५ योजन समुद्रके भीतर जाकर परिधि है । वहांपर सूर्यका विमान है और वह ? यो. विस्तृत है । इसके आगे ९९९९९१३ यो. जाकर परिधि है। वहां पर सूर्यका विमान है। यह भी है यो. ही विस्तृत है । फिर इसके आगे ४९९९९३५ यो. जाकर लवण समुद्रकी बाह्य परिधि है । इस सबको मिलानेपर लवण समुद्रका पूरा दो लाख यो. विस्तार होता है- ४९९९९३५+ + ९९९९९१३+४+४९९९९३ =२००००० यो. धातकीखण्डद्वीपमें संचार करनेवाले सूर्योके मध्यमें कुछ कम छयासठ हजार छह सौ छयासठ योजन मात्र अन्तर माना गया है-- {४०००००-(१६४२)) =६६६६५११ यो. ॥७१ ॥ लवण समुद्र सम्बन्धी जगतीसे अर्ध सूर्यान्तर (६६६६५१९१२) में अवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001872
Book TitleLokvibhag
Original Sutra AuthorSinhsuri
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year2001
Total Pages312
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Geography
File Size22 MB
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