________________
सम्पादकीय वक्तव्य लगभग सात वर्ष पूर्व मेरे अमरावती रहते हुए जब जंबूदीवपण्णत्तीके प्रकाशनका कार्य चल रहा था तब श्री डॉ. हीरालालजी और डॉ. ए. एन्. उपाध्येजीकी यह प्रबल इच्छा दिखी कि वर्तमान लोकविभागको प्रामाणिक रीतिसे संपादित कर उसे भी इस जीवराज जैन ग्रन्थमालासे प्रकाशित कराया जाय । तिलोयपण्णत्तीमें अनेक स्थलोंपर जिस लोकविभागका उल्लेख किया गया है उसका इस वर्तमान लोकविभागसे कितना सम्बन्ध है, इसका अध्ययन चूंकि मैं स्वयं भी करना चाहता था ; अत एव उक्त दोनों महानुभावोंकी प्रेरणासे मैंने इस कार्यको अपने हाथमें ले लिया था । परन्तु परिस्थिति कुछ ऐसी निर्मित हुई कि अमरावतीमें मुद्रणकी व्यवस्था पूर्वके समान सुचारु न रह सकनेसे मुझे षट्खण्डागमके १३ वें भागके प्रकाशनकार्यके लिये लगभग एक वर्ष बम्बई रहना पड़ा, जहां इस कार्यको प्रारम्भ करना शक्य नहीं हुआ। तत्पश्चात् उक्त षट्खण्डागमके शेष १४-१६ भागोंके प्रकाशनकार्य के लिये बम्बई को भी छोड़कर बनारस जाना पड़ा।
बनारसमें उस कार्यको करते हुए जो समय मिलता समें इस लोकविभागके अनुवादको चालू कर दिया था। उसकी प्रतिलिपि श्री डॉ. उपाध्येजी बहुत पूर्व में करा चुके थे और उसे उन्होंने तिलोयपण्णत्तीकी प्रस्तावनामें उसका परिचयादि देनेके लिये मेरे पास बहुत समय पहिले ही भेज दिया था। अनुवादका कार्य मैनें इसी प्रतिलिपिपरसे प्रारम्भ किया था। किन्तु एक मात्र इसपरसे अनुवादके करने में कुछ कठिनाईका अनुभव हुआ। तब मैंने जैन सिद्धान्त-भवन आराकी प्रतिको भिजवा देने के लिए सुहृद्वर पं. नेमिचन्दजी ज्योतिषाचार्यको लिखा । वे यद्यपि इसका स्वयं संपादन करना चाहते थे, फिर भी मेरे द्वारा उसका कार्य प्रारम्भ कर देनेपर उन्होंने सहर्ष उस प्रतिको मेरे पास भिजवा दिया और अपने उस विचारको स्थगित भी कर दिया । परन्तु इस प्रतिमें पूर्वोक्त प्रतिलिपिसे कोई विशेषता नहीं दिखी। इस प्रकार मेरी वह कठिनाई तदवस्थ ही रही।
जब मैं बम्बईमें श्रद्धेय स्व. पं. नाथूरामजी प्रेमीके यहां रह रहा था तब उनके जैन साहित्य और इतिहास' के द्वितीय संस्करण का मुद्रणकार्य चालू हो गया था। उसमें पहिला लेख (लोकविभाग और तिलोयपण्णत्ती' ही है । उसको मैंने देखा था व तद्विषयक चर्चा भी उनके साथ होती रहती थी । उसका स्मरण करके मैंने अपनी उस कठिनाईके सम्बन्धमें प्रेमीजीको लिखा । उन्होंने उसी समय अपनी ओरसे १०० रु. जमा करके ऐ. प. सरस्वती भवन बम्बई की प्रति हस्तगत की और मेरे पास भेज दी। इस प्रतिमें यह विशेषता थी कि श्लोकोंके मध्यमें संख्यांक भी निर्दिष्ट थे। इससे संशोधनके कार्य में पर्याप्त सहायता मिली । इस प्रकारसे अनुवादका कार्य प्रायः बनारसमें समाप्त हो चुका था । परन्तु वहां रहते हुए प्रथमतः पत्नीका स्वास्थ्य खराब हुआ और वह ठीक भी न हो पाया था कि मैं स्वयं भी बीमार पड़ गया। इस बीमारीके कारण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org