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दो शब्द )
दो शब्द
आदरणीय नेमीचन्दजी पाटनी द्वारा लिखित " सुखी होने का उपाय” भाग-५ आपके हाथों में है । इसके पूर्व सन् १९९० में भाग-१, १९९१ में भाग- २, १९९२ में भाग - ३ तथा १९९४ में भाग-४ प्रकाशित किये गये थे । भाग - १ में वस्तु व्यवस्था एवं विश्व व्यवस्था, भाग-२ में आत्मा की अन्तरदशा एवं भेदविज्ञान, भाग-३ में आत्मज्ञता प्राप्त करने का उपाय यथार्थ निर्णय ही है तथा भाग-४ में यथार्थ निर्णय पूर्वक ज्ञातृतत्त्व से ज्ञेयतत्त्व का विभागीकरण विषय पर चर्चा की गई है। इसे समयसार गाथा १४४ के आधार पर लिखा है
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यह तो सर्व विदित ही है कि पाटनीजी ने आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी का समागम पूरी श्रद्धा और लगन के साथ लगातार ४० वर्ष तक किया है । वे भाषा के पण्डित भले ही न हों, पर जैन तत्त्वज्ञान का मूल रहस्य उनकी पकड़ में पूरी तरह है । स्वामीजी द्वारा प्रदत्त तत्त्वज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने के काम में वे विगत पैंतीस वर्षों से नींव का पत्थर बनकर लगे हुए हैं; विगत ३०-३५ वर्षों से मेरा भी उनसे प्रतिदिन का घनिष्ठ सम्पर्क है । अत: उनकी अन्तर्भावना को मैं भली भाँति पहचानता हूँ ।
अभिनन्दन पत्र भी न लेने की प्रतिज्ञाबद्ध श्री पाटनीजी ने यह कृति लेखक बनने की भावना से नहीं लिखी है; अपितु अपने उपयोग की शुद्धि के लिए ही उनका यह प्रयास है; उनके इस प्रयास से समाज को सहज ही सम्यक् दिशाबोधक यह कृति प्राप्त हो गई है ।
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यह चारों भाग तो अपके समक्ष पहुँच ही चुके हैं, अब यह पाँचवां भाग भी आपके हाथों में है ही । इनके और भी भाग तैयार होंगे वे भी आपको शीघ्र ही प्राप्त होंगे। उनके भाव आप सब तक उनकी ही भाषा में हूबहू पहुँचें इस भावना से इनमें कुछ भी परिवर्तन करना उचित नहीं समझा गया है अतः विद्वज्जन भाषा पर न जावें, अपितु उनके गहरे अनुभव का लाभ उठावें इसी अनुरोध के साथ
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डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
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