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________________ ६ ) आस्रवादि तत्त्वों को पर कैसे माना जावे तथा क्यों माना जावे लेकिन जिनवाणी में तो अपनी सभी पर्यायों का कर्ता आत्मा को भी कहा है तथा पर्यायों को पर भी कहा है, वह कैसे ? संवर निर्जरा व मोक्ष पर्याय तो निर्मल है, उनको भी पर क्यों माना जावे ? उपरोक्त समस्त कथन का तात्पर्य देशनालब्धि की मर्यादा समझ लेने मात्र से ही परिणति में परिवर्तन नहीं हो जाता ? आगम तो अगाध है, उसमें से आत्मदर्शन करने की विधि कैसे समझी जावे द्वादशांग का सार, एकमात्र वीतरागता वीतरागता का स्वरूप क्या ? ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ आत्मा के स्वरूप को अस्ति की मुख्यता से समझने की प्रणाली देशनालब्धि की पूर्णता का स्वरूप एवं उसकी आवश्यकता सम्यक्त्व सन्मुख जीव को पांच लब्धियाँ एवं उनका स्वरूप सभी लब्धियों में आत्मरुचि का पृष्ट बल देशनालब्धि में पुरुषार्थ क्या होता है ? देशनालब्धि का प्रारम्भ किसप्रकार ? ज्ञानी उपदेशक को कैसे जाने ? ज्ञानी उपदेशक को पहिचानने के बाह्य लक्षण क्या ? आत्मार्थी की समझ की यथार्थता को कैसे पहिचानें ? देशना का केन्द्रबिन्दु क्या हो ? देशनालब्धि का निर्णय देशनालब्धि की मर्यादा एवं चरम दशा देशनालब्धि एवं प्रायोग्यलब्धि में अन्तर समझने की विधि सन्दर्भ सूचि Jain Education International २२३ २२५ २२६ २२७ २३१ २३३ २३७ २३९ २४० २३३ २४३ २४६ २४८ २५० २५१ २५१ भेदपूर्वक किये गए कथन, मात्र अभेद को समझाने के लिए ही होते हैं २५४ अभेद - अखण्ड- एक ज्ञायक स्वभावी आत्मा की अभेदता *** २१४ For Private & Personal Use Only २१५ २१७ २१८ २२१ २५५ २५७ www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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