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________________ ५२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ अपने ही आत्मा में विद्यमान दोनों स्वभावों का अध्ययन शास्त्र में उपरोक्त परिस्थितियाँ बताई गई हैं, इस ही लिए स्वीकार कर लेने से मेरी श्रद्धा में परिवर्तन नहीं हो सकता, अतः मेरे अनुभव के आधार पर मुझे समझना पड़ेगा, तब ही मेरी श्रद्धा परिपक्व हो सकेगी । जब अपने ही अनुभव के आधार पर विचार करते हैं तो इस दृष्टान्त के माध्यम से विचार किया जावे कि मान लीजिए अभी हमारी उम्र ५० वर्ष की है तो इस ५० वर्ष के जीवनकाल में कितने व्यक्तियों के साथ मित्रता के भाव हुए और कितने व्यक्तियों के साथ शत्रुता के भाव हुए। जिनसे शत्रुता के भाव थे कालांतर में उनके साथ मित्रता भी हो गई होगी और जिनके साथ मित्रता थी उनके साथ शत्रुता के भाव भी हो गये होंगे । इन परिवर्तनों के जो कुछ भी कारण बने थे वे तथा उस शत्रुता अथवा मित्रता के काल में उन व्यक्तियों के साथ जो-जो भी शत्रुता और प्रेम के भाव हुए हों, वे सारे के सारे भाव तो, वर्तमान में कहीं भी अस्तित्व में नहीं है । इससे सिद्ध होता है कि ५० वर्ष के काल में जितने भी अनेक प्रकार के भाव हुए थे वे सब स्थाई नहीं थे, नाशवान् थे । उनका जीवनकाल उस समय मात्र का ही था, इस ही कारण वे नष्ट भी हो गए। अतः वे आत्मा की अनित्य स्वभाव की स्थिति को सिद्ध करते हैं। जो भाव होकर नष्ट हो गये उनको वैसा का वैसा ही वापस करना चाहे तो वे हो नहीं सकते । इससे सिद्ध होता है कि उनका उस समय मात्र ही अस्तित्व था । लेकिन जिसमें वे भाव हुए थे वह तो "मैं" वहीं का वहीं हूँ, मैं तो उन भावों के होने के पहिले भी था और वे भाव होकर नष्ट भी हो गये तो भी “मैं” तो वही का वही विद्यमान हूँ। यह स्थिति मेरे स्थाई नित्य स्वभाव को भी सिद्ध करती है। इससे सिद्ध होता है कि जिसमें वे अनित्य स्वभाव उत्पन्न होकर विनष्ट भी हो गए, ऐसा नित्य स्वभाव वाला "मैं" भी, J Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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