SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पात्रता) (४३ देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अंतरंग में भक्ति उछलती है तो उनकी भक्ति पूजा आदि में अपने उपयोग को लगाता है, लेकिन आत्मा से दूर कर देने वाले कारणों में, अपने उपयोग को नहीं फंसने देने के लिए निरन्तर चेष्टावान रहता है, ऐसा जीव ही, यथार्थत: आत्मा की अन्तरंग स्थिति का अनुसंधान करने के लिए उपयोग को स्वलक्ष्यी कर, अनुसंधान करता रहता है। वह अपनी बुद्धि को तीक्ष्ण एवं एकाग्र करके, अंतरंग में उत्पन्न ऐसे विपरीत कारणों को ढूँढ़कर निकाल लेता है, जिनका अभाव करके उसका उपयोग आत्मा में अभेद हो सके और चिरकाल तक आत्मशांति प्राप्त कर सके। ऐसे आत्मार्थी-जीव को चारों भागों के अध्ययन कर लेने पर भी एक प्रश्न खड़ा रह जाता है कि आत्मा के अन्दर होने वाले विकारी एवं निर्विकारी भावों का द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव चारों तो आत्मा ही हैं। आत्मा के भाव, आत्मा के अतिरिक्त अन्य में हो भी कैसे सकते हैं? कुछ भी हो, वे हैं तो आत्मा की ही पर्यायें। अत: उनको भी आत्मा से भिन्न कैसे समझा जावे? दूसरी ओर से विचार करते हैं तो यह भी सत्य है कि अनित्य एवं विकारी एवं निर्विकारी भावों के स्वभाव, आत्मा के नित्य स्वभाव से विपरीत हैं और इन विकारी भावों का तो कालान्तर में नाश भी हो जाता है ? तो भी मैं तो वैसा ही कायम रहता हूँ। अत: दोनों में भावभेद होने से तथा उनका क्षण-क्षण में नाश होने से, वे मेरे से भिन्न होना भी चाहिए। अत: इस शंका को निर्मूल करने हेतु आत्मार्थी अनुसंधान करने में अपने उपयोग को लगा देता है। ऐसे आत्मार्थी की उपरोक्त समस्या के समाधान हेतु इस भाग-५ में अनुसंधान करने का प्रयास होगा, अत: पात्रतापूर्वक तीव्र रुचि के साथ इस ही दृष्टि से आत्मार्थी को इसका अध्ययन करना चाहिए। *** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy