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________________ ४० ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ दिखते हुए इन पर्यायों से आत्मा ज्ञायकभाव भिन्न कैसे मान लिया जाये ? यह असंभव जैसा ही लगता है । उपरोक्त समस्या का समाधान मुख्यरूप से समयसार ग्रंथाधिराज के माध्यम से प्रस्तुत भाग-५ में करने का प्रयास किया गया है । पाठकगण इस दृष्टिकोण को मुख्य रखकर प्रस्तुत भाग के विषय को समझने की चेष्टा करेंगे तो निःशंक निर्णय होने पर, रुचि आत्मसन्मुख होकर, टीका के उत्तर चरण में प्रवेश करने का मार्ग प्रशस्त करेंगे। उपरोक्त टीका के प्रथम चरण “ आत्मा ज्ञानस्वभावी है”- इस निर्णय करने के दो पक्ष हैं। पहला तो अस्तिपक्ष है कि आत्मा ज्ञानस्वभावी ही है, ऐसा कैसे माना जावे ? दूसरा नास्तिपक्ष कि आत्मा अन्य स्वभावी नहीं है - ऐसा क्यों माना जावे ? इन दोनों पक्षों में प्रथम पक्ष, कि आत्माज्ञान स्वभावी है ऐसा कैसे माना जावे ? इसकी चर्चा तो इसी पुस्तक के भाग-३ में एवं ४ में विस्तार से की जा चुकी है। अतः इस विषय की पुनरावृत्ति इस भाग - ५ में नहीं की गई है। पाठक उन ही भागों से उस विषय का पुनः अध्ययन करें । इसीप्रकार छहद्रव्यों से मिश्र आत्मा को कहा जाता है लेकिन आत्मा उस रूप नहीं हैं इसकी भी चर्चा भाग एक व दो में हो चुकी है तथा अन्य कोई प्रकार माना-जाना गया हो तो भी आत्मा उस रूप नहीं है, इन सबकी चर्चा भी पूर्व भागों में हो चुकी है। भाग-४ में यह भी विस्तार से चर्चा की गई है कि ज्ञान में ज्ञेय ज्ञात होने पर भी आत्मा उन रूप कैसे नहीं हैं तथा उनसे आत्मा को भिन्न कैसे माना जावे, इसकी भी चर्चा हो चुकी है। अब तो नास्तिपक्ष का मात्र एक पहलू बाकी रह गया था, द्रव्य से पर्याय अभिन्न होते हुए भी, उनसे ज्ञायकभाव को भिन्न कैसे माना जावे। उस पक्ष की चर्चा इस भाग-५ में करके नास्तिपक्ष के सभी पहलुओं को निरस्त करके, आत्मा को निशंक करने का प्रयास किया जावेगा । उपरोक्त टीका के उत्तरचरणों के संबंध में आयु शेष रही तो आगे भागों में स्पष्ट करने का प्रयास किया जावेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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