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देशनालब्धि की मर्यादा)
(२४९
उत्तर :- वास्तव में आत्मार्थी को समझने का केन्द्रबिन्दु स्पष्ट हुए बिना, देशना का लाभ ही कैसे होगा? कारण उपदेश में तो अनेक विषय, अनेक प्रकरण अनेक अपेक्षाओं से सभी तरह के आते हैं। द्वादशांग में क्या नहीं आवेगा, सभी कुछ आता भी है और आना भी चाहिए। इस विषय में पूर्व प्रकरणों में विस्तार से चर्चा की जा चुकी है, फिर भी संक्षेप में यहाँ बताया गया है। आत्मार्थी को तो प्रयोजनभूत का भी केन्द्रबिंदु स्पष्ट ज्ञात हुए बिना, अगर अप्रयोजनभूत विषयों के समझने के चक्कर में फंस गया तो, जीवन तो समाप्त हो जावेगा और प्रयोजनभूत समझने से वंचित रह जावेगा। अत: केन्द्रबिंदु स्पष्ट होना तो देशनालब्धि से भी विशेष महत्वपूर्ण है। जैसे हीरा रत्न को प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम तो हीरे की खान को पहिचानना होगा फिर उसमें से निकली मिट्टी-जिसको खरड़ के नाम से बोला जाता है, उस खरड़ में भी जो हीरे को पहिचान लेगा, वह ही उस खरड़ में से हीरे को प्राप्त कर सकेगा। इसीप्रकार आत्मार्थी को भी देशना का केन्द्र बिंदु स्पष्ट समझ में आना ही चाहिए।
आत्मार्थी का केन्द्रबिन्दु तो मात्र एक ही होना चाहिये, कि मुझे तो सिद्ध भगवान बनना है । सिद्ध भगवान जगत के सभी पदार्थों को जानते हुए भी किंचित् मात्र भी रागी अथवा द्वेषी नहीं होते, इस ही कारण वे परम वीतरागी हैं। इसलिये ध्येय तो आत्मार्थी का सिद्ध बनने का ही होता है। अत: उसको तो देशनालब्धि द्वारा सिद्ध भगवान बनने का मार्ग समझना ही मात्र प्रयोजनभूत है। अत: एकमात्र वही मार्ग समझने का केन्द्रबिन्दु रहता है। सिद्ध भगवान के समान सकल ज्ञेयों का ज्ञायक मैं भी हूँ, लेकिन मैं उन ज्ञेयों को ही हितकारी मानकर राग करने लग जाता हूँ एवं अहितकारी मानकर द्वेष करने लग जाता हूँ। अत: मुझे तो समस्त उपदेश में से, मात्र वह मार्ग ही समझना है, कि जिससे मेरा आत्मा भी
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