________________
(२३७
देशनालब्धि की मर्यादा ) अकर्ता एवं त्रिकाल ज्ञायक रूप है, ऐसा समझा था, वही स्वभाव भगवान सिद्ध की पर्याय में प्रगट हो गया और वही मेरे अनुभव में आया है। अत: सभी प्रकार से ऐसा निःशंकतापूर्वक निर्णय हो जाता है।
उपरोक्त निःशंक निर्णय होने के साथ-साथ अगर आत्मा को प्राप्त करने की उग्र तमन्ना-रुचि नहीं हो तो वह निर्णय भी फलीभूत नहीं हो पाता । उपयोग में आत्मा को प्रगट करने अर्थात् प्राप्त करने की तीव्रतम रुचि ही, उपयोग की दिशा, जो परसन्मुख बनी हुई थी उसको आत्मलक्ष्यी करने का मूल उपाय है। और उसका आत्मलक्षी हो जाना ही वास्तव में प्रायोग्यलब्धि का प्रारम्भ है। ऐसा ही रुचि का वेग, उस उपयोग की आत्मसन्मुखता को बढ़ाती हुई करणलब्धि को पार कराकर, आत्मा का निर्विकल्प अनुभव करा देती है, यही आगम सम्मत यथार्थ पुरुषार्थ है।
सभी लब्धियों में आत्मरुचि का पृष्टबल सैनी पंचेन्द्रिय मात्र को, किसी भी विषय को समझने की योग्यता तो प्राप्त हुई है। वह वर्तमान काल के पुरुषार्थ से प्राप्त नहीं की गई है, वह तो पूर्व भव में किये हुए शुभ भावों के फलस्वरूप प्राप्त हो गई है। लेकिन अब उस क्षयोपशम का उपयोग किस विषय में करना यह तो मात्र अपनी वर्तमान रुचि पर ही निर्भर करता है। संसार की रुचि होने पर वही क्षयोपशम लौकिक कार्यों में लगता है और आत्मरुचि होने पर वही क्षयोपशम तत्त्वनिर्णय अर्थात् आत्मा का स्वरूप समझने में कार्य करने लगता है। यह तो हर एक को सहज रूप में समझ में आ सकता है। इसप्रकार रुचि का कार्य तो सबसे प्रथम की क्षयोपशमलब्धि में ही प्रारम्भ हो जाता है।
आत्मा को प्राप्त करने की वह रुचि होने से कषायों की मंदता तो हो ही जाती है। कषायों की मंदता के समय में अर्थात् जब कषाय की मंदता हो उस समय, भगवान अरहंत व सिद्ध के स्वरूप चितवन द्वारा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org