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(सुखी होने का उपाय भाग - ५
आदि-आदि विचारों द्वारा अपने अकर्ता ज्ञायक एक भाव में ही मेरापनाअहंपना निःशंक रूप से निर्णय में बैठ जावे? और साथ ही स्त्री, पुत्र, मित्र, आदि कुटुम्ब को तथा धन-वैभव व्यापार आदि को तथा शरीर आदि एवं शरीर से सम्बन्धित सभी पदार्थों को अभी तक अपना मानता था, उनमें भी परपना लगने लगे। विशेष क्या बचा अपने अंदर ही अनित्य स्वभावी पर्याय मात्र को चाहे वे पर्यायें शुभ हों, अशुभ हों अथवा शुद्ध हों, सभी में अपने से भिन्न पर वस्तु के समान, परपने की मान्यता, निःशंक निर्णय में बैठ जावे, तब तक का समस्त पुरुषार्थ ही देशनालब्धि है। _ “मोक्षमार्ग प्रकाशक" के पृष्ठ २६१ पर देशनालब्धि का स्वरूप निम्न शब्दों में लिखा है :
“तथा जिनदेव के उपदिष्ट तत्त्व का धारण हो, विचार हो, सो देशनालब्धि है। जहाँ नरकादि में उपदेश का निमित्त न हो वहाँ वह पूर्व संस्कार से होती है।"
संक्षेप में तात्पर्य यह है कि देशनालब्धि के काल में ही आत्मार्थी को आत्मस्वरूप का इतना स्पष्ट और यथार्थ निर्णय हो जाना चाहिए कि भगवान सिद्ध की आत्मा का जो स्वरूप है अर्थात् जो आत्मा का स्वरूप-स्वभाव उनमें प्रगट विद्यमान है। उस पूर्ण स्वभाव वाला ही “मैं" वर्तमान में विद्यमान हूँ। इसप्रकार सम्पूर्ण विषय निःशंक रूप से उसकी समझ में और विश्वास में तो, देशनालब्धि में ही हो जाता है। निर्विकल्प दशा होने पर, इस निर्णय का विषय, अनुभव में भी आने पर, श्रद्धा ज्ञान में वही प्रमाणित हो जाता है । जो अनुभव में ज्ञात हुआ, वह ही मेरे निर्णय में आया था अत: यही मेरी आत्मा का वास्तविक स्वरूप है फलत: वह ज्ञानी हो जाता है। सविकल्प दशा में अर्थात् अनुभव के पूर्व जिनवाणी के अध्ययन एवं गुरु उपदेश से, जो आत्मा का स्वभाव, “सब का सर्वदा
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