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( सुखी होने का उपाय भाग - ५
इसीप्रकार का अभिप्राय पं. भूधरदासजी ने भी जैन शतक में व्यक्त किया है उसी पद्य का अंश है :
२२४ )
" जीवन अलप आयु बुद्धि बल हीन, तामें आगम अगाध सिंधु कैसे ताहि डाकि है । (अर्थात कैसे पूरा करेंगे )
अपूर्वकला,
घनसार की सलाक है। यही एक सीख लीजे याही को अभ्यास कीजे, याको रस पीजे ऐसी वीर जिनवाक् है । इतनों ही सार यही आतम को हितकार, यही लों मदार और आगे दूकढाक है । (अर्थात् जंगल है ) उपरोक्त गाथा में कथित “जरा मरण के नाश का उपाय” ही उपरोक्त कवित्त में “द्वादशांग मूल एक अनुभव अपूर्वकला” कहकर स्पष्ट कर दिया है और वह “अनुभव अपूर्वकला” कैसे प्राप्त होगी उसका स्पष्टीकरण पंचास्तिकाय की गाथा १७२ की टीका के निम्न अर्थ से स्पष्ट होता है :
द्वादशांगमूल एक अनुभव
भवदाधहारी
"यह, साक्षात् मोक्षमार्ग सार - सूचन द्वारा शास्त्र तात्पर्यरूप उपसंहार है ( अर्थात् यहाँ साक्षात् मोक्षमार्ग का सार क्या है उसके कथन द्वारा शास्त्र का तात्पर्य कहने रूप उपसंहार किया है । )
साक्षात् मोक्षमार्ग में अग्रसर सचमुच वीतरागपना है। इसलिये वास्तव में “ अर्हतादिगत राग को भी, चंदन वृक्षसंगत अग्नि की भाँति, देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति द्वारा अत्यन्त अंतर्दाहका कारण समझकर, साक्षात् मोक्ष का अभिलाषी महाजन सबकी ओर के राग को छोड़कर, अत्यन्त वीतराग होकर, जिसमें उबलती हुई दुःख सुख की कल्लोलें उछलती हैं और जो कर्माग्नि द्वारा तप्त, खलबलाते हुए जल समूह की
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