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देशनालब्धि की मर्यादा)
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करना होगा, कि कालांतर में भी वह स्मृति में बना रहे । यहाँ तक का कार्य तो द्रव्यश्रुत के आलंबन से अर्थात् माध्यम से हो जावेगा। लेकिन अब सत्समागम अथवा आगम अभ्यास के द्वारा जो मार्ग समझा गया है, उसका प्रयोग करने का कार्य बाकी रह जाता है। वह प्रयोग तो अपनी पर्याय अर्थात् परिणति में ही करना होगा ? क्योंकि आत्मा का अनुभव भी तो अपनी पर्याय में ही होना है। वह अनुभव द्रव्यश्रुत को तो नहीं होगा, वह तो अचेतन है, वह तो अनुभव अर्थात् सुख-दुःख का वेदन कर ही नहीं सकता? इससे स्पष्ट है कि आगम अर्थात् समस्त द्वादशांग तो मार्ग दृष्टा है। उसके रुचिपूर्वक अभ्यास करने से यथार्थ मार्ग समझा जा सकता है, आत्मानुभव नहीं हो सकता। उस मार्ग का अनुसरण करने से अर्थात् समझे गये यथार्थ मार्ग के अनुसार, अपनी परिणति में परिवर्तन करने से ही आत्मानुभव प्राप्त हो सकेगा। निष्कर्ष यह है कि आगम के अभ्यास मात्र से परिणति में परिवर्तन नहीं आ सकता । आगम तो अगाध है, उसमें से आत्मदर्शन करने की विधि
कैसे समझी जावे ? उपरोक्त प्रश्न का समाधान आचार्य श्रीअमृतचन्द्रदेव ने पंचास्तिकाय ग्रंथ की गाथा संख्या १४६ में एक प्राचीन गाथा प्रस्तुत की है, वह गाथा और उसका अर्थ निम्नप्रकार है :
“अंतो णत्थि सुईणं कालो थोओ वयं च दुम्मेहा। तण्णवरि सिक्खिव्वं जं जरमरणं स्वयं कुणई।"
अर्थ :- “श्रुतियों का अंत नहीं है ( शास्त्रों का पार नहीं है) काल अल्प है और हम दुर्मेध मंद बुद्धि वाले हैं, इसलिये मात्र वही सीखने योग्य है कि जो जरा-मरण का क्षय करे।"
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