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________________ ( सुखी होने का उपाय भाग - ५ प्रश्न :- आत्मा तो अमूर्तिक जीवद्रव्य है, और कर्म तो मूर्तिक प्रद्गल द्रव्य है, अत: अमूर्तिक का उसके साथ संयोग होना कैसे संभव है ? २१२ ) आत्मा के तत्त्वों को संयोगीभाव कैसे कहा गया है ? समाधान :- वास्तव में तो अमूर्तिक आत्मा में, मूर्तिक कर्मादि का संयोग होता ही नहीं है । यह तो वास्तव में उपचार का कथन है । क्योंकि जब आत्मा में ये सात तत्त्व रूप भाव होते हैं, उसी समय द्रव्यकर्मों के अनुभाग का भी उदयकाल आ जाने से वो उदय में आते हैं, उसी समय आत्मा की ज्ञानपर्याय जिसका स्वभाव ही स्व-पर प्रकाशक है, उसकी प्रगटता होती है, उसी समय जीव की अनादि से चली आ रही पर में अहंपने की मिथ्या मान्यता रूपी पर के साथ एकत्वबुद्धि की प्रगटता होती है, फलतः यह अज्ञानी आत्मा, परप्रकाशक ज्ञान में ज्ञात हुए ज्ञेय विषयों में एकत्व मान लेने से, उनका अपने में संयोग कर लेता है। इस प्रकार वास्तव में तो इन संयोगी भावों का कर्ता आत्मा ही है, कर्म नहीं । लेकिन ज्ञान ने किनके साथ एकत्व किया, यह समझाने के लिए, ऐसा उपचार करके कहा जाता है कि आत्मा ने द्रव्यकर्मों का संयोग किया । अत: उपचार से ही इन कर्मों को भी, इन संयोगी भावों का कर्ता कह दिया जाता है । लेकिन ऐसे सब कथन उपचार कथन समझना चाहिए । उक्त विषय का समर्थन आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार गाथा ३४४ की टीका के अन्त में निम्नप्रकार दिया है 1 :– " इसलिए ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञानस्वभाव से अवस्थित होने पर भी, कर्म से उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादिकाल से ज्ञेय और ज्ञान के भेद विज्ञान से शून्य होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह ( ज्ञायक भाव ) विशेष अपेक्षा से अज्ञानरूप ज्ञानपरिणाम को करता है । ( अज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञान का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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