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________________ द्रव्यों व तत्त्वों को स्व-पर के रूप में पहिचानें) (२११ उपरोक्त सातों तत्त्वों को, ग्रहण त्याग करने योग्य समझने के पूर्व, इनकी उत्पत्ति का कारण एवं इनको ग्रहण-त्याग करने से क्या लाभ होगा अर्थात् किस उद्देश्य को लेकर ग्रहण-त्याग करना चाहिए, यह समझना भी आवश्यक है; अत: वह निम्नप्रकार समझना चाहिये। आस्रवादि तत्त्वों की उत्पत्ति कैसे होती है ? जिन आत्मा के भावों का हमको ग्रहण-त्याग करना है, उनकी उत्पत्ति के यथार्थ कारणों की यथार्थ जानकारी हो जाने से ही उन भावों का ग्रहण-त्याग करना सम्भव हो सकेगा ? क्योंकि कार्य का अभाव, कारणों के अभाव हुए बिना संभव नहीं हो सकता ? इस संबंध में आचार्यश्री अमृतचन्द्र ने पंचास्तिकाय की गाथा १२९ से १३० की टीका के उपोदघात में निम्नप्रकार से स्पष्ट किया है : “दो मूल पदार्थ (जीव और प्रद्गल ) कहे गए, अब उनके संयोग परिणाम से निष्पन्न होने वाले अन्य सात पदार्थों के उपोद्घात के हेतु जीव- कर्म और पुद्गलकर्म के चक्र का वर्णन किया जाता है।" इसी गाथा की टीका के समापन में कहा है कि : “इसप्रकार ( यहाँ ऐसा कहा) कि पुद्गल परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे जीव परिणाम और जीव परिणाम जिनका निमित्त है ऐसे पुद्गल परिणाम अब कहे जाने वाले ( पुण्यादि सात ) पदार्थों के बीजरूप अवधारणा।” उपरोक्त आगम वाक्यों से यह सिद्ध हुआ कि उपरोक्त सातों संयोगी भावों अर्थात् सातों तत्त्वों का अभाव होकर, आत्मा के स्वाभाविक भाव प्रगट हो सकते हैं अर्थात् आत्मा को पूर्ण आनन्द दशा प्राप्त हो पकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001866
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size13 MB
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